
गर्मी की छुट्टियाँ (मई 2014) निकली जा रही थीं। अभी तक हम पिछले वर्षों की भाँति कहीं घूमने जा नहीं पाए थे। अम्लान कई बार याद दिला चुके थे। मैंने स्वयं भी अक्सर इस भाव को शिद्दत से महसूस किया है कि इन दिनों मुझे लगने लगता है, जैसे ये पहाड़ मुझे बुला रहे हों। उम्र के साथ-साथ इनके प्रति मेरी अन्तरंगता जैसे समृद्ध होती जा रही है। ऐसे में हमने तय किया कि हम लम्बी यात्रा पर न जाते हुए आसपास ही कहीं निकलते हैं।
धार से हमारे अग्रज बिहारी सिंहजी ने हमें माण्डू घूमने के लिए कई बार बुलाया था। सोचा! चलो, इस बार उन्हीं को कष्ट देते हैं। मैंने उनसे बात की। उन्होंने माण्डू के साथ-साथ महेश्वर की भी सलाह दे डाली। ऑफिस से छुट्टियाँ स्वीकृत कराईं। एक पारिवारिक मित्र ने मेरे लिए एक वाहन की व्यवस्था भी करा दी। छोटी-मोटी तैयारियों के साथ हम सभी माण्डू के लिए निकल गए।
सड़क मार्ग से माण्डू, भोपाल से 283 कि.मी. की दूरी पर है। सूर्य का ताप अपने चरम पर था। ऐसे में ड्राइवर ने हमें तीन घण्टे में ही इन्दौर पहुँचा दिया। दोपहर के भोजन का वक्त हो रहा था। इन्दौर के सयाजी होटल के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था। यहीं इन्दौर में कभी पदस्थ रह चुके हमारे मित्रों ने इस होटल के खाने के बारे में बहुत कुछ कहा था। हम सबने सोचा, चलो! एक बार हम भी स्वाद ले ही लेते हैं। भोजन सचमुच स्वादिष्ट था। बच्चों को भी बहुत मजा आया।
एक घण्टा रूकने के बाद हम आगे बढ़े। माण्डू अब 94 कि.मी. रह गया था। धार शहर में न घुसते हुए हम बाहर ही बाहर मानपुर, बगड़ी, लेबड़ी और सगड़ी के रास्ते माण्डू पहुँचे। नालछा के बाद माण्डू तक पहुँचने का मार्ग पहाड़ी और घुमावदार है। सड़क के एक तरफ गहरी खाई तो दूसरी ओर ऊँचे-ऊॅँचे वृक्ष दिखे। इनमें से अधिकांश अब पुराने दरख्तों में तब्दील हो चुके हैं। ये दृश्य, इस यात्रा और गन्तव्य, दोनों को और भी रोमान्चक बना रहे थे और इन अनुभवों के कारण नई जगह के प्रति हमारी उत्सुकता भी बढ़ती जा रही थी। विन्ध्याचल की सुरम्य पहाडि़यों में करीब 2000 फीट की ऊँचाई पर बसा माण्डू आज भी रानी रूपमती और बाज बहादुर की खूबसूरत मोहब्बत की तरह बेहद हसीन है।
माण्डू दुर्ग में घुसने के पहले बाईं तरफ एक गहरी खाई दिखी। यह काकड़ा खो है। यह खाई माण्डू की पूर्वी, पश्चिमी और दक्षिणी सीमा से लिपटी हुई है। इस दुर्ग के चारों ओर ऐसी ही खाइयों के कारण यह किला भारत के सबसे सुरक्षित किलों में से एक था। चढ़ाई समाप्त होते ही सड़क की दोनों दिशाओं में छोटे-बड़ें खण्डहर और मंदिरों के अवशेष दिखने लगे। सबसे पहला दरवाजा मिला, ‘आलमगीर दरवाजा’, आलमगीर अर्थात् औरंगजेब। औंरगजेब ने इस दरवाजे को सन् 1668 में बनवाया था।इसके बाद मिला, “भंगी दरवाजा”। कहते हैं, भंगियों को तब बहुत शुभ माना जाता था। इसी को ध्यान में रखते हुए परमार राजा वाक्पति मुंज ने 9 वीं सदी में इस दरवाजे को बनवाया था। माण्डू परकोटे को चारों ओर से घेरने वाली दीवार यहीं से प्रारम्भ होकर यहीं खत्म होती है। फिर मिला, “कमानी दरवाजा”। कहते हैं, इस किले में इस प्रकार के कुल 12 दरवाजे हैं जिनमें सबसे मशहूर दिल्ली दरवाजा है। यहीं आगे दाईं ओर अपने भग्नावशेष के रूप में विद्यमान था, परन्तु इमारत अवश्य बुलन्द रही होगी।
अब हमने प्रवेश किया, इस बेमिसाल किले वाले शहर में। यह माण्डू दुर्ग 48 वर्ग मील अर्थात् 72 वर्ग कि.मी. क्षेत्र में फैला हुआ है। कहते है, अपने उत्कर्ष काल में, माण्डू दुनिया का सबसे बड़ा शहर था। माण्डू के अन्तिम हिन्दू सम्राट महालकदेव के समय इस नगर में कुल 3 लाख घर थे। अगर एक घर में तीन व्यक्ति भी मान लिया जाए तो इस नगर की आबादी 9 लाख तक पहुँच जाती है। दूसरा बड़ा शहर इराक का बसरा था और तीसरा दिल्ली, जिसकी आबादी उस समय 3 लाख हुआ करती थी। कहा जाता है, उस समय इस नगर में सबका स्वागत होता था। कोई व्यक्ति इस नगर में बसने आता तो सभी नगरवासी उसे एक ईंट और एक रूपया उसकी मदद के लिए देते थे। माण्डू नगर का यही रिवाज था। तब इस नगर में 700 जैन मन्दिर थे। कहते हैं, आज भी इस किलेनुमा शहर में 3600 नष्टप्राय स्मारकों के भग्नावशेष देखे जा सकते हैं।
माण्डव, हाँ इस नगर के लोग इसे इसी नाम से पुकारते हैं। नगर पंचायत, घरों और दुकानों पर यही नाम अंकित है। इस नगर का आधार-प्रस्तर परमार राजाओं ने रखा। हर्ष, सिन्धु, वाक्पति मुंज और राजा भोज इस वंश के प्रसिद्ध राजा थे। परन्तु धार के मुकाबले इन राजाओं ने माण्डू को कम तवज्जो दी। कहते हैं, उन दिनों माण्डू के उत्कर्ष में जैन और वणिक समाज ने बहुत बड़ा योगदान दिया था। सन् 1304 में मुस्लिम शासकों ने इस किले को अपने कब्जे में कर इसका नाम सादियाबाद, अर्थात् ‘खुशियों का शहर’ रखा। मंगोलों के आक्रमण के कारण दिल्ली के सुल्तानों की सत्ता कमजोर हो गई थी और इसका लाभ उठाते हुए मालवा के पठान सरदार दिलावर खाँ ने स्वतन्त्र सत्ता स्थापित की।
दिलावर खाँ के पुत्र हुशंग शाह ने धार की जगह माण्डू को मालवा की राजधानी बनाया। 1561 ई. में अकबर के समय माण्डू पर मुगलों का आधिपत्य स्थापित हो गया। लेकिन सत्ता का केन्द्र माण्डू से दिल्ली स्थानान्तरित हो जाने के कारण इनके समय माण्डू ने अपना गौरव खो दिया। मुगलों के बाद 1732 ई. में मल्हारराव होल्कर के नेतृत्व में मराठों ने इसे अपने आधिपत्य में ले लिया। तब मालवा की राजधानी माण्डू से फिर धार ले जाई गई। माण्डू में आज जितनी भी ऐतिहासिक इमारतें उसके गौरवषाली अतीत को प्रतिबिम्बित करती हैं, उनमें से अधिकांश वर्ष 1401 से वर्ष 1526 के मध्य, अर्थात् 125 वर्षों में बनी हैं।
हमारे रुकने की व्यवस्था तवेली महल की दूसरी मन्जिल पर बने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के रेस्ट हाउस, जिसे डाक बंगला भी कहते हैं, में की गई थी। इस रेस्ट हाउस की लोकेशन वास्तव में विशिष्ट है। हम जिस कमरे में रूके थे, उसमें एक पीतल की पट्टिका लगी हुई थी। इसमें उत्कीर्ण था, ‘इस कमरे में वर्ष 1952 में भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री श्री जवाहरलाल नेहरू रूक चुके हैं’। कमरों में लगी तस्वीरें बयां कर रही थीं कि पण्डित नेहरू के साथ श्रीमती गाँधी, दोनों बच्चे राजीव व संजय और शेख अब्दुल्ला भी आए थे। माण्डू में ठहरने के लिए इससे बेहतर स्थान कोई दूसरा नहीं हो सकता। इस स्थान से समूचे माण्डू शहर के खूबसूरत नज़ारे दिख रहे थे तो जहाज महल को निहारने के लिए इससे बेहतरीन स्पॉट दूसरा नहीं है। समूचे रॉयल पैलेस इनक्लेव का विहंगम दृश्य यहाँ से हम देख पा रहे थे।
आधा घण्टा आराम करने के बाद हम माण्डू की ऐतिहासिक विरासतों को देखने निकल गए। आज से 23 वर्ष पहले मैं अपने बड़े भाई संजय के साथ यहाँ आ चुका हूँ। एक पूरा दिन हमने यहाँ गुजारा था परन्तु उस समय की स्मृतियाँ अब धुँधली पड़ चुकी हैं। मैं इन स्मृतियों को तरोताज़ा करने ही यहाँ आया था। माण्डू के पटवारी मेहताब ने हमारी मुलाकात माण्डू के बेहतरीन गाइड भोजपाल से करवाई।
भोजपाल, माण्डू के लिए जाना पहचाना नाम है, जो यहाँ के बाशिन्दों द्वारा आदरपूर्वक लिया जाता है। इनके बड़े भाई भी बहुत जानकार गाइड थे जिनकी पिछले साल मृत्यु हो गई। भोजपाल वर्ष 1978 के एम.ए. हैं और यूरोप जाने की इच्छा भी रखते है। वे वरिष्ठ आए.ए.एस. अधिकारी डा॰ राजेश राजौरा के बड़े प्रशंसक हैं। डा॰ राजौरा ने धार कलेक्टर रहते हुए माण्डू में पर्यटन को बढ़ावा देने के उद्देश्य से यहाँ के 15 गाइडों को गहन प्रशिक्षण दिलवाया था। भोजपाल इन 15 गाइडों में से एक थे।
भोजपाल ने बताया कि माण्डू के प्रसिद्ध स्मारकों को मुख्यतः तीन समूहों में बाँट सकते हैं। पहला राममन्दिर चौराहे के पास जामी मस्जिद, हुशंगशाह का मकबरा और अशर्फी महल, जिसे हम आज ही देखने वाले थे। दूसरा रेवाकुण्ड परिसर और तीसरा रॉयल पैलेस इनक्लेव। इन दोनों के लिए कल का समय मुकर्रर किया गया।
हमने जामी मस्जिद से शुरूआत की। माण्डू स्थित सबसे प्रभावशाली इमारत यही है। करीब 30 सीढि़याँ चढ़ते हुए हम ऊपर पहुँचे। जमीन से करीब 5 मीटर ऊँचे चबूतरे पर इस भवन का निर्माण हिन्दू मंदिरों की बुनियाद पर हुआ है। कहते हैं, इस जामी मस्जिद की डिजाइन दमिष्क स्थित मस्जिद की नकल कर तैयार की गई थी। दमिश्क स्थित यह मस्जिद तब बहुत पाक मानी जाती थी। सीढि़याँ चढ़ते हुए हम एक विशाल दरवाजे से भीतर आ गए। बहुत करीने से यह मस्जिद बनाई गई है। भव्य आँगन है, जिनकी छतें छोटे-छोटे गुम्बदों से बनी हैं। आज यहाँ कुल 80 गुम्बद बचे हैं। भोजपाल ने बताया कि यहाँ मूल रूप से कुल 160 गुम्बद थे जिनमें से आधे वर्ष 1838 के भूकम्प में नष्ट हो गए।
भोजपाल ने माण्डू के स्मारकों में चार प्रकार की टेक्नोलॉजी के उपयोग की रोचक चर्चा की। उसने कहा कि दूरसंचार (टेलिकम्युनिकेशन), लाउडस्पीकर, पाइप म्यूजिक और मौसम की भविष्यवाणी (वेदर फोरकास्ट) का उपयोग यहाँ की अलग-अलग इमारतों में हुआ है। उसके यह बताने के बाद अधीरता बढ़ गई थी। पहली टेक्नोलॉजी के बारे में जानने के लिए अधिक इन्तजार नहीं करना पड़ा। उसने बताया कि इस जामी मस्जिद में लाउडस्पीकर का उपयोग किया गया है। कैसे? पूछने पर उसने हमें बरामदे के अन्तिम छोर पर खड़ा कर दिया और स्वयं मुख्य इमारत में चला गया।
कुछ पल बाद हमें फिल्म ‘आराधना’ का गीत ‘कोरा कागज था ये मन मेरा, लिख लिया नाम इसपे तेरा………’ उसके प्रील्यूड सहित स्पष्ट सुनाई पड़ा। हम चकित रह गए थे। फिर वैसे ही आवाज़ देकर हमें वहीं बुलाया। पूछा, मैं कौन सा गीत गा रहा था? नहीं बता पाने की कोई वजह नहीं थी। माण्डू के बारे में शानदार प्रस्तुति के अलावे उसका गला भी बहुत मधुर था। उसने बताया कि यह भवन 15वीं सदी का है जबकि लाउडस्पीकर का अविष्कार 18वीं सदी की देन है। इस स्मारक का नाम जामी मस्जिद अवश्य है परन्तु इसमें नमाज कभी पढ़ी ही नहीं गई क्योंकि एक तो, इस मस्जिद में एक भी मीनार नहीं है जबकि सभी मस्जिदों में दो या चार मीनारें अवश्य होती हैं। दूसरे, इस भवन में वजू बनाने की कोई व्यवस्था नहीं है और तीसरे, शाही इमाम के बैठने के लिए कोई मेम्बर नहीं बना है। एक चबूतरे के पीछे एक ऊँचा सिंहासन अवश्य है, जिसमें ऊपर तक पहुँचने के लिए ग्यारह सीढि़याँ हैं जबकि किसी मस्जिद में ढ़ाई फीट अथवा तीन सीढ़ी का मेम्बर जरूरी होता है ताकि सभी नमाजि़यों को शाही इमाम दिखता रहे।
वास्तव में यह भवन, जनता दरबार अथवा न्यायालय के उपयोग में आता था। सिंहासन पर राजा बैठता था और उसके द्वारा निर्णीत फैसले को जनता तक पहुँचाने के लिए सामने चबूतरे पर उद्घोषक बैठते थे। राजा के आदेश को वही लोग लिपिबद्ध करते और फिर इसी लाउडस्पीकर सिस्टम का उपयोग कर जोरों से उद्घोषणाएँ की जाती थीं ताकि प्रत्येक नागरिक तक आवाज पहुँच जाए जो उस परिसर में उपस्थित होते।
इस भवन में राजा के सिंहासन के दाईं ओर उसके नौरत्नों के बैठने की जगह बनाई गई है जिसमें प्रमुख रत्न की जगह बड़ी थी जबकि बाईं ओर राजा के आठ सलाहकारों (अष्टप्रधान) के बैठने की जगह हम सबने देखी। आज यह भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित इमारत है और इसमें नमाज पढ़ने की अनुमति नहीं है।
यह इमारत वास्तव में शानदार है और इसे बनाने के लिए लाल पत्थर यहाँ से 700 कि.मी. दूर धौलपुर से लाए गए थे। इसका निर्माण कार्य हुशंगशाह ने प्रारम्भ करवाया था मगर इसे पूरा महमूद खिल्जी ने 1454 ई. में करवाया। इसी भवन में से एक दरवाजा पीछे के लिए खुलता है। इसी रास्ते से निकलते हुए हम जामी मस्जिद के ठीक पीछे हुशंगषाह के मकबरे तक आ गए। मकबरे का मुख्य द्वार काफी प्रभावशाली है।
अपने पिता दिलावर खाँ को जहर देकर हुशंगशाह राजगद्दी पर बैठा था। इसी कारण उसे मालवा की राजधानी धार के स्थान पर माण्डू बनानी पड़ी। ऐसी परिस्थितियों में माण्डू को पहली बार राजधानी का गौरव प्राप्त हुआ। दिलावर खाँ की हत्या के कारण नाराज़ उसके मित्र गुजरात के सुल्तान मुजफ्फर शाह ने हुशंगशाह को बन्दी बना लिया था परन्तु बाद में उसे मालवा वापस सौंप दिया गया।
हुशंगशाह का कार्यकाल ऐतिहासिक घटनाओं से परिपूर्ण है। उसने काल्पी जीतने के बाद होशंगाबाद शहर बसाया था। महान् भवन निर्माता के साथ-साथ उसने सैन्य क्षमताओं का उपयोग पूरे माण्डू शहर को ऊँची-ऊँची दीवारों से घेरकर एक किले की शक्ल देने में भी किया। उसने जामी मस्जिद बनवाई, दिल्ली दरवाजा बनवाया और वर्ष 1436 में हुई मृत्यु के पूर्व ही अपना मकबरा बनवाना शुरू कर दिया था जिसे वर्ष 1440 में उसके पुत्र महमूद शाह ने पूरा करवाया। हमारे गाइड ने इसे कब्रों की एडवांस बुकिंग बताई। उसके अनुसार उस समय यह परिपाटी आम चलन में थी।
बहुत गौर से हमने इस शानदार इमारत को देखा। हुशंगशाह का मकबरा भारत में संगमरमर से बनने वाली पहली इमारत है। इसके बाद ही ताजमहल बनाने के लिए दिल्ली से चार उस्ताद इस भवन को देखने आए थे, उस्ताद हामिद, लतीफुल्ला खाँ, उस्ताद शिवराज और ख्वाजा जादूराय। इन लोगों ने इस भवन का बारीक मुआयना किया और वापस जाकर आगरा में ताजमहल के सपने को साकार किया। बहुत बाद में 1659 ई. में उस्ताद हामिद दुबारा इस स्मारक में आते हैं और इस भवन के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। इस आशय का एक अभिलेख इस मकबरे के दक्षिणी दरवाजे पर दाईं ओर आज भी देखी जा सकती है। भोजपाल ने हमें इन उत्कीर्ण शब्दों को गर्व से दिखाया। कहते हैं, कालान्तर में इस मकबरे को एक पवित्र दरगाह की हैसियत प्राप्त हो गई थी और यहाँ सालाना उर्स भी लगता था। यह रिवाज 19 वीं सदी के अन्त तक प्रचलन में रहा।
मकबरे के अन्दर कुल 6 कब्रें थीं जिसमें सुल्तान हुशंगशाह की कब्र संगमरमर की है, शेष 5 जो उसके पुत्रों और परिवारजनों की है, साधारण पत्थरों की हैं। गाइड ने संगमरमर पत्थरों की खासियत बताई कि इनमें वायु की नमी सोखने की अद्भुत क्षमता होती है। इसी कारण इन पत्थरों के नीचे की सतह हमेशा गीली होती है। संगमरमर से किसी भी इमारत के निर्माण के पहले इनमें से पानी निकालने की कैनाल अवश्य बनानी पडती है। उसने मकबरे के अन्दर एक स्पॉट बताया, जहाँ से पानी की बून्दें लगातार गिरने के कारण धब्बे पड़ गए हैं। ताजमहल में भी इसी प्रकार की कैनाल में आई खराबी के कारण ऊपरी कब्र पर आज भी पानी गिरता है। मकबरे के शिखर पर जो अर्धचन्द्राकार आकृति लगाई गई है, वह पर्सिया अथवा मेसोपोटामिया से मँगाई गई थी।
हमने मकबरे के दाईं ओर बनी धर्मशाला को भी देखा जो विशुद्ध हिन्दू शैली में बनी है। तब शायद यह मकबरा भी कोई मन्दिर रहा होगा जिसे तोड़कर यह आकार दिया गया। इस धर्मशाला की निर्माण शैली बहुत भव्य है और दक्षिण में रामेश्वरम् और मदुरै में इसी प्रकार के बरामदे देखे जा सकते हैं। इसमें मकराना से मँगाए गए संगमरमर के बड़े-बड़े स्लैब रखे हुए थे। मकबरे में कई स्थानों पर हुई टूट-फूट के कारण निर्माण कार्य प्रारम्भ होने वाला है।
कुछ फोटोग्राफी की। आगे बढ़े। मैंने गाइड भोजपाल को कई स्थान पर पन्नियाँ उठाकर डस्टबिन में डालते देखा। पूछने पर उसने गर्व से बताया कि माण्डू को वर्ष 2009 में स्मारकों के रखरखाव के लिए यूनेस्को का प्रथम पुरस्कार मिला है। वर्ष 2011 में माण्डू को पोलीथीन-फ्री रखने वाले स्मारकों में प्रथम तथा 2013 में तृतीय पुरस्कार भी मिल चुका है। मुझे याद है, 23 वर्ष पहले जब अपने बड़े भाई के साथ आया था, तब ये स्मारक निहायत ही गन्दे थे। चमगादड़ों का डेरा हुआ करता था। यहाँ का प्रत्येक स्मारक उनके मलमूत्र से बजबजा रहा था। चारों ओर ऐसी दुर्गन्ध कि हिम्मत कर कोई एक बार घुस जाए तो दो मिनट भी न रूक सके। आज एकदम साफ-स्वच्छ स्मारक। एकदम शान्त वातावरण। पर्यटकों की भीड़ अवश्य थी मगर आम नगरों की तरह चिल्ल-पों नहीं थी। सचमुच, एक पीढ़ी ने करवट ले ली है।
यहाँ से बाहर निकलते हुए हम जामी मस्जिद के मुख्य द्वार से बाहर निकले और ठीक सामने स्थित अशर्फी महल पहुँचे। गाइड भोजपाल ने बताया कि यह अशर्फी महल मूलतः एक संस्कृत महाविद्यालय था जिसे वर्ष 1024 में राजाभोज ने बनवाया था। बाद में इसे हुशंगशाह ने एक मदरसे में परिवर्तित कर दिया था। तब फारसी पढ़ाने वाला भारत का पहला और दुनिया का चौथा मदरसा था। वजह, इसके सामने जामी मस्जिद होना था। गाइड के अनुसार, नीचे वाले माले पर विद्यार्थी रहते थे और ऊपर वाले पर पढ़ाई होती थी। परन्तु बाद में यह स्थान महमूद शाह के मकबरे के रूप में परिवर्तित कर दिया गया। महमूद शाह के समय मालवा की सल्तनत अपने चरमोत्कर्ष पर थी। इस सल्तनत को ईजिप्ट के खलीफा ने भी मान्यता देते हुए अपने दूत भेजे थे।
अपनी मृत्यु के पूर्व उसने एक भव्य मकबरे की योजना बनाई थी। इस अशर्फी महल के बन जाने के बाद इसके डिजाइन में परिवर्तन कर बीच वाले आँगन को भरकर मकबरे की नींव तैयार गई। अब इस मकबरे के कुछ हिससे ही बचे हैं परन्तु खण्डहर बताते हैं कि इमारत कभी आसमानी रही होगी। गुम्बद और चबूतरा दोनों जामी मस्जिद और हुशंगशाह के मुकाबले अधिक भव्य थे। कहते है, यह इमारत भी संगमरमर की थी जिसमें सफेद, पीले और काले संगमरमर का उपयोग किया गया था। परन्तु अयोग्य कारीगरों और जल्दबाजी में किए गए निर्माण के कारण यह अधिक दिनों तक टिक न सकी। अगर यह इमारत आज सुरक्षित होती तो माण्डू की सबसे प्रभावशाली इमारत होती।
वहीं भोजपाल ने हमें विजय स्तम्भ दिखाया जो कभी सात मन्जिला हुआ करता था। आज सिर्फ नीचे वाला माला बचा है। इतिहास में दर्ज पन्नों के अनुसार, मेवाड़ के साथ हुए वर्ष 1437 के युद्ध में मिली विजय के उपलक्ष्य में यह बनवाया गया था। उधर राणा कुम्भा ने भी इसी युद्ध में मिली जीत की याद में चित्तौड़ में एक और विजय स्तम्भ बनवाया। दरअसल सांरगपुर के निकट हुए इस युद्ध में दोनों ने जीत के परस्पर दावे किए थे। युद्ध अनिर्णीत रहा होगा। मुख्य द्वार पर ताला लगा था। अन्दर जाना मना था।
इस भवन का नाम अशर्फी महल क्यों पड़ा? पूछने पर उसने एक बड़ी रोचक कहानी बनाई। तब मालवा का शासक गयासुद्दीन खिल्जी था। उसे मोटी और पके बालों वाली रानियाँ पसन्द नहीं थीं। जब कोई रानी मोटी होने लगती, उसे व्यायाम कराने यहाँ लाया जाता था। भोजपाल ने हमें दिखाया कि इस अशर्फी महल की सीढि़याँ कितनी चौड़ी हैं। इन रानियों के लिए एक-एक अशर्फी प्रत्येक सीढ़ी पर रखी जाती और रानियों से कहा जाता कि वे उन्हें एक-एक कर उठाएँ। ऐसे में उनका व्यायाम हो जाता और बाद में ये अशर्फियाँ गरीबों में बाँट दी जातीं। कुल मिलाकर यह अशर्फी महल तब एक जिम हुआ करता था। सच्चाई चाहे जो हो परन्तु अफसाना रोचक अवश्य है। पके बालों वाली रानियों के साथ क्या किया जाता, इसका उल्लेख अगले पृष्ठों पर है।
जून माह का गर्म महीना चल रहा था। हमें घूमते हुए दो-ढ़ाई घण्टे हो चुके थे। थकावट के साथ-साथ प्यास भी लग आई थी। ऐसे में वहीं एक वृद्ध अम्मा ने हमें आवाज लगाई, नींबू पानी पी लो! हम सहर्ष तैयार थे। वहीं एक टोकरी में एक अजीब सी चीज बिक रहीं थी। भोजपाल ने बताया कि यह इमली है, जिसे माण्डू की खुरासानी इमली कहते हैं। यह करीब-करीब नाशपाती के आकार की गोल थी। इसका स्वाद और आकार दोनों सामान्य इमली से अलग हैं। माण्डू में इसके हजारों वृक्ष हैं जिनमें पत्तियाँ नहीं थीं। भोजपाल ने हमें इनके वृक्ष भी दिखाए। इनका तना काफी मोटा था। महमूद खिल्जी के शासनकाल में मालवा का अफ्रीकी देशों के साथ मधुर व्यापारिक सम्बन्ध थे। ऐसे में ही वर्ष 1436 में उसने मेडागास्कर से इसके बीज बुलवाए थे। इसे बाउबब (Baobab) कहते हैं।
उसके अनुसार, माण्डू शहर के ऊँचाई पर बसे होने के कारण यहाँ हमेशा पानी की कमी रही है। माण्डू की प्रत्येक इमारत में किसी को भी बरसात के पानी को संजोकर रखने के प्रयास दिखेंगे। ऐसे में सैनिकों को ये इमलियाँ खाने को दी जाती थीं। कहते हैं, एक इमली खाने के बाद तीन-चार घण्टे प्यास नहीं लगती। प्रस्तुत किए गए तथ्य वास्तव में रोचक थे। उसने बताया कि प्रत्येक वर्ष माण्डू में 4-4.5 लाख पर्यटक आते हैं और प्रत्येक पर्यटक कम से कम इमली का एक टुकड़ा जरूर चखता है और उसके बीज फेंक देता है। फिर भी एक नया वृक्ष नहीं दिखता। अभी आप जो वृक्ष देख रहे हैं, वे सभी उसी समय के हैं।
भोजपाल ने यह इमली पहले बकरियों को खिलाई। जुगाली के बाद जो बीज बकरियों ने उगले, उनसे अंकुर फूट रहे हैं। उसने इस विधि से कई पोधे तैयार किए हैं। भारत में इसके वृक्ष यहाँ के अलावे दमन और घोड़बन्दर, मुम्बई में ही हैं। ये वृक्ष भी अजीब थे। इनकी शाखाएँ, जड़ों जैसी थीं और कहते हैं, इनकी जड़ें, शाखाओं जैसी होती हैं। एक अफ्रीकी कहावत के अनुसार, एक बार एक बाहुबली ने इस वृक्ष को उखाड़ कर उल्टा गाड़ दिया था।
भोजपाल के अनुसार, इस खुरासानी इमली के अतिरिक्त यहाँ की ‘बालम ककड़ी’ भी मशहूर है, जो लौकी से भी बड़ी होती है। यहाँ की खिरनी बहुत स्वादिष्ट है जिसकी ग्राफ्टिंग अब चीकू के साथ की जा रही है। साथ ही, हमें सीताफल के हजारों झाड़ दिखे। उसका कहना था कि ऐसे स्वादिष्ट सीताफल आपको कहीं नहीं मिलेंगे। इनमें कैल्सियम की मात्रा किसी भी अन्य स्थान पर पैदा होने वाली सीताफल से अधिक होती है।
भोजपाल से ये सारी कहानियाँ सुनते-सुनते आज का समय खत्म हो गया था। हालांकि अभी अन्धेरा नहीं हुआ था, फिर भी किसी अन्य स्मारक को अब देख पाना सम्भव नहीं था। उससे कल सुबह के लिए समय मुकर्रर करने के बाद वापस तवेली महल के लिए वापस लौटे। परन्तु ऊपर अपने कमरों में न जाते हुए हम जहाज महल के लिए आगे बढ़ गए। कुछ देर वहीं कपूर तालाब देखते रहे, कुछ फोटोग्राफी भी की। फिर मेरे और अम्लान में रेस लग गई कि सीढि़यों पर दौड़ते हुए पहले ऊपर कौन पहुँचता है। करीब छप्पन सीढि़यों तक चला यह दिलचस्प मुकाबला अनिर्णीत रहा, विवादों में उलझ गया। यहाँ से समूचा माण्डू शहर बहुत खूबसूरत नज़र आया। हमने महल के ऊपर का एक-एक हिस्सा देख डाला। यह भी देखा कि उस समय बारिश के पानी की हिफाज़त कैसे की जाती थी? फिर उसे फिल्टर कर कैसे स्वीमिंग पूल तक लाते थे? हमें कल यहाँ गाइड के साथ भी आना था। सूरज डूबते ही हज़ारों चमगादड़ आसमान में उड़ रहे थे। शायद इसी कारण माण्डू कभी ‘भूतों का शहर’ (City of Ghosts) भी कहलाया है।
अन्धेरा होने पर हम अपने-अपने कमरों की ओर बढ़ गए। यहाँ रेस्ट हाउस में खाने-पीने की व्यवस्था नहीं थी। रात्रि 9 बजे हम मालवा रिसाॅर्ट पहुँचे। लगा, जैसे यहाँ आने वाले हम प्रथम और अन्तिम उपभोक्ता हैं। समूचा होटल और उसका रेस्तरां खाली पड़ा था। उसी रास्ते वापस रेस्ट हाउस वापस आ गए। ऊपर दूसरी मन्जिल पर तेज हवा चल रही थी। माण्डू का तापमान आष्चर्यजनक ढंग से कम हो गया था।
आज हमारी इस यात्राखण्ड का पहला दिन था।
दूसरा दिन: माण्डू फोर्ट से सहस्त्रधारा तक
सुबह 5.30 बजे ही नींद खुल गई थी। बालकनी में ठण्ड के कारण एक सिहरन सी थी। हवा ऐसी जैसे हम हवा महल में हों, पूरी रात सुबह तक बहती रही। काफी देर तक वहीं बैठे रहे। अभी अन्धेरा पूरी तरह छंटा नहीं था। जहाज महल सहित पूरा परिसर एकदम शान्त और रहस्यमय दिख रहा था। खैर, आठ बजे तक हम सब तैयार होकर राममन्दिर चौराहे पहुँच गए। भोजपाल वहीं हमारा इन्तजार करते मिले।
आज की शुरुआत हमने वहीं राममन्दिर में दर्शन के साथ की। मन्दिर एक व्यवस्थित परिसर में स्थित है। बाहर ही एक दीवार पर इसके विवरण अंकित हैं। मन्दिर में प्रतिष्ठित चतुर्भुज श्रीराम, लक्ष्मण और सीता की प्रतिमाओं का निर्माण वर्ष 901 में हुआ था। उपलब्ध ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार, सन् 1769-70 में सन्त रघुवरदास, पुणे से भ्रमण करते हुए माण्डव पधारे थे। यहाँ स्वप्न में उन्हें भगवान श्रीराम के दर्शन हुए और उन्हें आदेश मिला कि प्रभु की प्रतिमा नीचे तलघर में प्रतिष्ठित है, जनहित हेतु प्रकट होना चाहते हैं।
उस समय धार की राजमाता सक्कूबाई पवार थीं, जिन्हें उन्होंने अपने स्वप्न के बारे में बताया। धार्मिक प्रवृत्ति वाली रानी ने सन्त की उपस्थिति में खुदाई करवाई। श्रीराम, लक्ष्मण, सीता और सूर्यनारायण के साथ ही शान्तिनाथ की प्रतिमाएँ भी प्रकट हुईं। इन प्रतिमाओं को राजमाता धार ले जाना चाहती थीं। सारी प्रतिमाओं को ससम्मान एक हाथी पर रखवाया गया परन्तु हाथी धार जाने के लिए अपनी जगह से आगे बढ़ा ही नहीं। बहुत प्रयासों के बावजूद वह टस से मस नहीं हुआ। विवश होकर इन प्रतिमाओं को इसी मन्दिर में प्रतिष्ठित किया गया। साथ ही, मन्दिर के रख-रखाव पर आने वाले व्यय के लिए तीन गाँवों की जागीर भी दी गई।
हम सबने हाथ जोड़कर प्रतिमाओं के दर्शन किए, प्रसाद लिए और कुछ देर तक पुजारी महाराज से बातें भी कीं। उन्होंने बताया कि चतुर्भुज राम की ऐसी प्रतिमा दुर्लभ है। वह पुजारी मन्दिर के अध्येता रघुवरदास का वंशज है और वे यहाँ के महन्त कहलाते हैं। मन्दिर दर्शन के बाद हम इको प्वाइन्ट की तरफ बढ़े।
रास्ते में हमें सागर तालाब मिला। गाइड ने बताया कि इस माण्डू फोर्ट में कुल 32 तालाब हैं, जिनमें यह सबसे बड़ा है। सल्तनत काल में इसमें तरह-तरह की मछलियाँ पाली जाती थीं और कमल के फूल भी खिले रहते थे। आसपास की पहाडि़याँ और हरे-भरे वन इसे अद्भुत बना रहे थे। बारिष के दिनों यह तालाब बहुत खूबसूरत दिखता होगा।
वहीं सड़क पर हमारी गाड़ी रोक दी गई। सड़क की दूसरी तरफ दाई का महल और दाई की छोटी बहन का महल दिख रहा था। गाइड ने बताया कि माण्डू से धार तक एक निष्चित दूरी पर इस प्रकार की सैकड़ों संरचनाएँ लगातार मिलेंगी। आवाज की गति 330 मीटर प्रति सेकेण्ड होती है। इसे ध्यान में रखते हुए प्रत्येक 165 मीटर पर इस प्रकार की संरचनाएँ बनाई गईं। हर दस संरचना की देखरेख करने वाला एक अधिकारी होता था। इस तकनीकि का प्रयोग करते हुए कोई भी संदेश 10 मिनट में माण्डू से 35 कि.मी. दूर धार पहुँचा दिया जाता था। भोजपाल ने इसे टेलिकम्यूनिकेशन का नायाब नमूना बताया। यह माण्डू में प्रयुक्त दूसरी टेक्नोलॉजी थी।
यही स्थान ईको प्वाइन्ट कहलाता है। हमने दाईं के महल की ओर मुँह कर आवाज लगाई, हमें अपनी आवाज लौटती हुई सुनाई पड़ी। उसके अनुसार, गोलकुण्डा में भी इस तकनीकि का प्रयोग किया गया है परन्तु वहाँ आवाज़ इतनी साफ नहीं आती। एक अन्य कोण से आवाज लगाई तो डबल ईको सुनाई पड़ा। उसने पण्डित नेहरू के भ्रमण के समय का एक रोचक किस्सा सुनाया। वर्ष 1952 में उनके साथ माण्डू भ्रमण पर आए शेख अब्दुल्ला के सामने ही उस समय के पारंगत गाइड और भोजपाल के गुरू वी.एन.शर्मा ने जोर से आवाज लगाई, ‘कश्मीर पाकिस्तान का है या भारत का’? उधर से आवाज लौटी, ‘भारत का’! कहते हैं, इससे शेख साहब नाराज हो गए थे। उनकी नाराजगी भाँपते हुए पण्डितजी ने भी जोर से आवाज लगाई, ‘शर्माजी सच बोल रहे हैं या झूठ’? उधर से आवाज आई, ‘झूठ’! माहौल ठहाकों में तब्दील हो गया। दरअसल इको में अन्तिम शब्द ही लौटता है। भोजपाल ने एक और आवाज लगाई, ‘ऋचा फेल होगी या पास’? उधर से आवाज आई, ‘पास’! और इस प्रकार हमारे गाइड ने ऋचा को पास करा दिया। उसने एक और अफसाना बयां किया, अगर आप ‘भारत माता की जय’ बोलेंगे तो सारे शब्द सुनाई पड़ेंगे। भोजपाल के शब्दों पर यकीन तो नहीं हुआ पर उसकी देशभक्ति यकीकन सन्देह से परे थी।
रास्ते में उसने खुरासानी इमली, खिरनी, सीताफल, बरगद सहित अनेक वृक्ष दिखाए। काले मुँह वाले बन्दर चारों ओर उधम कर रहे थे। वहाँ से निकलते वक्त उसने दूर से ही मलिक मुगिथ का मकबरा, कारवां सराय, जाली महल भी दिखाया।
अब हम रेवा कुण्ड परिसर की ओर बढ़ रहे थे। “दृष्टिकोण” में लक्ष्मण राव लिखते हैं, ‘यहाँ के पर्यटन स्थल खण्डहरों से बने हैं और उन खण्डहरों से एक ऐसी सुन्दर स्त्री की प्रेम कहानी झलकती है, जिसकी दूर-दूर तक चर्चा है। उस स्त्री का नाम है, रानी रूपमती! रूपमती के किस्से मध्यप्रदेश की धरती पर विश्वास एवं सम्मान के साथ सुने जाते हैं’।
देशी-विदेशी पर्यटक जब माण्डू के लिए निकलते हैं, तब मार्गदर्शन करने वाले गाइड अपनी बात रानी रूपमती की चर्चा से ही आरम्भ करते हैं क्योंकि माण्डू का दूसरा नाम रानी रूपमती की प्रेम कहानी है। इन पत्थरों एवं खण्डहरों से बस यही एक आवाज उभरती है। बड़ी-बड़ी प्रेम कहानियों जैसे लैला-मजनू, हीर-रांझा, सोहनी-माहिवाल सदृश इनकी भी अमर प्रेम कहानी इतिहास के पन्नों में दर्ज है।
भोजपाल ने टुकड़ों-टुकड़ों में रानी रूपमती और बाज बहादुर की कहानी सुनाई, जो किताबों में पढ़ी जाने वाली कहानी से थोड़ी अलग है। किताबों की कहानियाँ तो कोई भी पढ़ लेगा परन्तु भोजपाल की कहानी अधिक दिलचस्प है। मैं इन सूत्रों को पिरोने की कोशिश कर रहा हूँ।
रूपमती एक छोटे से राज्य धर्मपुरी के राजा थानसिंह की बेटी थी। उसका गला बहुत अच्छा था और संगीत की विधा में निपुण थी। कहते हैं, जब वह राग मेघ मल्हार का सुर छेड़ती थी, तो बादल कभी भी बरस पड़ते थे। इसके अतिरिक्त, राग मालकौंश और राग हिण्डोला पर भी उसे पूरी महारत हासिल थी। इन रागों के बारे में अबुल फजल ने विस्तार से लिखा है। जब वह तान छेड़ती तब सुनने वाले मन्त्रमुग्ध रह जाते थे। वह अक्सर अपने दोस्तों के साथ, चरवाहों के साथ घूमती, फिरती और गायन में लीन रहती। वह बला की खूबसूरत भी थी।
ऐसे में एक दिन सुल्तान बाज बहादुर उसको गाते हुए सुन लेता है। बाज बहादुर स्वयं बहुत निपुण संगीतज्ञ था। राग दीपक में वह इतना प्रवीण था कि कहते हैं, उसके गायन के दौरान आग के बिना भी दीपक जल उठते थे। ऐसे में वह छिप-छिपकर करीब एक साल तक उसका संगीत सुनता रहा। इस दौरान वह रूपमती पर मोहित हो जाता है और अपना परिचय देकर माण्डू चलने को कहता है। रूपमती इस बारे में उसे उसके पिता से बात करने को कहती है। रूपमती के पिता के मना करने पर बाज बहादुर धर्मपुरी पर आक्रमण कर रूपमती को जीत लेता है और उसे ‘सादियाबाद’ लाना चाहता है। ऐसे में रूपमती ने बाज बहादुर के सामने दो शर्तें रखीं। एक, वह ऐसे स्थान पर रहना चाहती है, जहाँ से माँ नर्मदा हमेशा दिखती रहें और दूसरा, बाज बहादुर का महल भी उसकी आँखों के सामने रहे। बाज बहादुर ने उससे दो दिन का समय माँगा। इस दौरान उसने रूपमती मण्डप के ऊपर दो बुर्ज बनवाए, जहाँ से नर्मदा देखी जा सकती थीं और वह स्वयं रेवा कुण्ड के पास बाज बहादुर के महल में रहने लगा। उसने रानी की दोनों शर्ते पूरी कर दी थीं।
बाज बहादुर से रूपमती ने विवाह किया था या नहीं, इस पर विवाद अवश्य है क्योंकि रूपमती का चन्देरी के राजा मानसिंह के साथ विवाह का उल्लेख मिलता है। रानी रूपमती ने सिर्फ इसी बात पर अपने पति का घर छोड़ दिया था कि वह नर्मदा दर्शन के बिना नहीं रह सकती। फिर राजपूताना औरतें एक विवाह के बाद दूसरा विवाह नहीं करतीं और पति जिन्दा हो तो सती भी नहीं हो सकतीं। इस कारण अनेक मतों के अनुसार रूपमती ने सिर्फ संगीत के कारण बाज बहादुर के साथ रहना भर स्वीकार किया था।
यही कहानी सुनते-सुनते हम रानी रूपमती के मण्डप वाली पहाड़ी पर ऊपर आ गए। मध्यकालीन युग में प्रेम के भावपूर्ण अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है यह इमारत। गाइड हमें विस्तार से बताता रहा। यहीं इसी बुर्ज पर रानी रोज सुबह 5 बजे से 7 बजे तक रहती, नर्मदा नदी का दर्शन करती और पूजा-अर्चना के बाद ही अन्न-जल ग्रहण करती। फिर बाज बहादुर के महल जाकर उसे गीत-संगीत सुनाती। उसके बाद पालकी से रॉयल पैलेस लौट जाती। शान्ति के दिनों में रानी की यही दिनचर्या होती थी।
नीचे मण्डप देखने के बाद हम भी ऊपर बुर्ज पर पहुँचे। माण्डू की पहाडि़यों के अतिरिक्त निमाड़ की घाटी बहुत खूबसूरत दिख रही थी। दरअसल इस तरफ भी पहाडि़यों पर किले की दीवारें बनी हुई हैं। फिर तीखी ढलान के बाद भूमि समतल हो जाती है। यहाँ मालवा का भाग खत्म हो जाता है और नर्मदा नदी की घाटी प्रारम्भ हो जाती हैं। हमने यहाँ जीभर फोटोग्राफी की। परन्तु धुन्ध के कारण नर्मदा नदी नहीं देख सके।
नर्मदा के नहीं दिखने वाली बात पर भोजपाल ने हमें एक और किस्सा सुनाया। पण्डित नेहरू के साथ आए समस्त मेहमानों को गाइड वी.एन.शर्मा ने नर्मदा नदी दिखाई। सबको नदी दिखी परन्तु अनेक प्रयासों के बावजूद वे पण्डित नेहरू को दिखा पाने में असफल रहे। अन्त में हारकर उन्होंने पण्डितजी से कहा, यदि आपको नर्मदा के प्रति श्रद्धा है, तभी आपको दिखेगी, अन्यथा नहीं। शर्माजी बहुत ही मुँहफट और हाजिर जबाब थे।
नीचे उतरकर हमने किले के अन्दर बरसाती पानी के टैंक को देखा। उन दिनों आसमान से गिरने वाले प्रत्येक बून्द को कैसे सहेजते थे ये लोग। सारा पानी एक स्थान पर इकट्टा कर पत्थरों, रेत और चारकोल से गुजारते हुए पीने योग्य बनाया जाता था। आज यूरेका फोर्स के एक्वागार्ड का मेकेगिज्म भी तो यही है।
वास्तव में यह भवन निमाड़ घाटी पर नजर रखने के लिए सैन्य चेकपोस्ट के रूप में काम आता होगा। यह माण्डू फोर्ट का सबसे ऊँचा स्थान है। यहाँ से थोड़ी दूरी पर बाज बहादुर का महल दिखाई पड़ रहा था तो दूर पहाड़ी ढलानों पर आदिवासियों के घर। भोजपाल ने बताया कि यहाँ माण्डू फोर्ट परिसर में आदिवासियों के कुल 12 गाँव है।
अब हम पहुँचे, रेवा कुण्ड। इस रेवा कुण्ड का उल्लेख स्कन्द पुराण में भी है। रेवा अर्थात् नर्मदा का दूसरा नाम। इस कारण इस कुण्ड का जल बहुत पवित्र माना गया है। नर्मदा नदी के परकम्मावासी, इसका पानी परिक्रमा के दौरान मान्घाता स्थित ओंकारेश्वर में अवश्य चढ़ाते हैं। भोजपाल इस रेवा कुण्ड के समीप दाह संस्कार होने से गन्दगी के कारण बहुत दुखी दिखे। इस कुण्ड का निर्माण रूपमती मण्डप और बाज बहादुर के महल में जलापूर्ति के लिए हुआ था। इस फोर्ट एरिया में इस प्रकार की कुल 32 बावडि़याँ हैं।
हम बाज बहादुर महल में आए। साइफन पद्धति का उपयोग करते हुए पर्सियन व्हील (रहट) की सहायता से पानी महल के भीतर स्वीमिंग पूल तक कैसे पहुँचता था, उस समय की अभियान्त्रिकी पर आश्चर्य होता है। यह पूरा महल एक प्रांगण था जिसका उपयोग बाज बहादुर मुख्य रूप से संगीत कार्यक्रमों के लिए करता था।
अपने पिता शुजात खान की मृत्यु के बाद मलिक बयाजिद, बाज बहादुर की उपाधि धारण कर मालवा का सुल्तान बना। एक वर्ष बाद उसने गोण्डवाना राज्य पर आक्रमण किया परन्तु वहाँ की रानी दुर्गावती के हाथों उसकी बुरी हार हुई। इस हार की शर्म और निराषा के कारण उसने अपने आपको संगीत और असैनिक कार्यों तक सीमित कर लिया और ऐसी ही परिस्थितियों में उसको रानी रूपमती का साथ मिल जाता है। फिर तो दोनों की जुगलबन्दी ने संगीत को नई ऊँचाइयों तक पहुँचा दिया था।
बादशाह अकबर तब तक दिल्ली में अपनी सत्ता मजबूत कर चुका था। उसका दरबार नौ रत्नों से सुशोभित था और महान् संगीतकार तानसेन भी इसकी शोभा बढ़ा रहे थे। संगीत के मर्मज्ञ अकबर ने जब बाज बहादुर और रानी रूपमती के संगीत प्रेम की चर्चा सुनी तो अपनी सेना को हुक्म दिया कि उन दोनों को जिन्दा उसके दरबार में हाजिर किया जाए। उसके सेनापति अधम खाँ और पीर मोहम्मद सेना लेकर दक्षिण की ओर कूच कर गए। ऐसे में बाज बहादुर भी अपनी सेना लेकर उत्तर की ओर बढ़ा। राजगढ़ के पास सारंगपुर से 13 कि.मी. दूर उदनखेड़ी में दोनों सेनाओं की जोरदार टक्कर होती है। बाज बहादुर हारकर रण छोड़ देता है और खानदेश भाग जाता है।
अधम खाँ ने रूपमती के अप्रतिम सौन्दर्य की चर्चा सुन रखी थी। वह उसे किसी प्रकार प्राप्त करना चाहता है और रानी को मजबूर किया जाता है कि वह अधम खाँ के समक्ष उपस्थित हो। उन दोनों के वार्तालाप को मालवा की लोकगाथाओं में आज भी याद किया जाता है:-
मेरा थोड़ा मान राखो आलीजा,
मैं ना माँगूं राज,
सोना ना माँगूं चाँदी ना माँगूं,
और ताम्बा माँगूं तो तलाक है।
कि बाई सारे वीरा माँगूं,
ना माँगूं उदियापुर का राज।
चित चन्देरी मन मालवा,
दिया हाड़ोती माय।
सेज बिछे तो रणत भंवर,
और औड़ू माण्डव माय।
रूपमती हाड़ा वंश की राजकन्या थी, जहाँ ताम्बे का नाम लेना भी बहुत अशुभ माना जाता है। दरअसल यह एक राजस्थानी गाना है। इतने अनुनय विनय के बाद भी अधम खाँ कोका नहीं मानता है। वह रूपमती को लालच देता है कि वह उसके हरम में आ जाए, वह उसे अपनी पटरानी बनाकर रखेगा।
अन्त में मजबूर होकर रूपमती दुल्हन का श्रृंगार कर रात्रि 12 बजे इसी बाज बहादुर के महल में अधम खाँ से विवाह करने आती है और विवाह के पहले ही जहर खाकर अपनी जान दे देती है। बाद में, रानी रूपमती को सांरगपुर ले जाकर कालीसिन्ध नदी किनारे उसका अन्तिम संस्कार कर दिया गया। सांरगपुर बाज बाहदुर का पैतृक घर था। और इस प्रकार रानी रूपमती सदा के लिए इतिहास के पन्नों में दर्ज हो जाती है।
जब यह सारी घटना सम्राट अकबर को मालूम पड़ती है, तब वह अधम खाँ को दण्ड देते हुए फतेहपुर सीकरी की तीसरी मन्जिल से दो बार नीचे फिंकवाकर मार डालता है। बाज बाहदुर बहुत दिनों तक इधर-उधर भटकने के बाद अन्ततः अकबर की शरण में आ जाता है। वर्ष 1595 में उसकी मृत्यु के बाद उसे भी सांरगपुर में ही रानी रूपमती के समाधिस्थल के पास दफनाया गया।
बाज बहादुर के महल को हमने बड़े गौर से देखा। भोजपाल ने इस महल में माण्डू की तीसरी टेक्नोलॉजी के उपयोग की बात बर्ताइं। वह थी, पाईप म्यूजिक। सामने आँगन में बने मन्च से गायन-वादन होता रहता था और संगीतप्रेमी अपने-अपने कक्षों में लेटे-लेटे ही संगीत का रस लेते रहते थे। उसने हमें भीतरी कक्षों में खड़ा कर दिया और बाहर आँगन में बने उसी मन्च के पास चला गया। थोड़ी ही देर से एक सधे गले की आवाज सुनाई पड़ी,
आ जा तुझको पुकारे मेरा प्यार,
मैं तो कब से मिटा हूँ तेरी चाह में
सचमुच हम चमत्कृत रह गए थे यह सुनकर। गीत बहुत प्रासंगिक था, जो इस प्रेम कहानी को सार्थकता भी प्रदान कर रहा था। मूल रूप से इस महल का निर्माण वर्ष 1508 में नासिरूदीन खिल्जी ने करवाया था। नीचे देखने के बाद हम ऊपर आ गए।
यहाँ बारहदरी का निर्माण संगीत आयोजन के लिए किया गया था। जब नर्मदा की पूजा-अर्चना कर रूपमती मण्डप से रानी, बाज बहादुर के महल आती तो शहनाईवादक महल की इन्हीं बुर्जों से शहनाईवादन किया करते थे। हम सभी ऐसी ही कल्पनाओं में खो गए थे। यहाँ से रानी रूपमती का महल एकदम स्पष्ट और खूबसूरत दिख रहा था। बाज बहादुर यहीं महल की छत से मण्डप पर नर्मदा दर्शन के लिए आई रानी रूपमती को टकटकी लगाकर देखता रहता था। यहाँ से हम बाज बहादुर के रानी रूपमती के प्रति प्रेम के मर्म की सहज अनुभूति कर पा रहे थे।
वहाँ से निकलते समय एक लठ को बाँसुरी की तरह बजाने वाले आदिवासी युवक से हमारी मुलाकात हुई। वह बहुत ही मधुर आवाज निकाल रहा था। नाम पूछने पर, रमेश पिता मन्याजी भील, पूरा बता गया।
हम वापस रॉयल पैलेस इनक्लेव के लिए बढ़े। साढ़े 10 बज चुके थे। भूख लग आई थी। वहीं राम मन्दिर चौराहे के पास एक रेस्तरां में हम सबने कुछ खाया पिया। आज गर्मी एकदम कम हो गई थी। आसमान में बादल घुमड़ रहे थे। प्रकृति ने अपनी कठोरता हमारे लिए कम कर दी थी।
हम इनक्लेव के मुख्य द्वार पर पहुँचे, जहाँ रूके हुए थे। नीचे की मन्जिल पर एक छोटा सा ऐन्टिक्विटी म्यूजियम बना हुआ था और यह इमारत तवेली महल कहलाती है। पण्डित नेहरू दो बार, वर्ष 1952 और 1956 में माण्डू आ चुके हैं और दोनों बार इसी में रूके थे। जब गाइड वी.एन.शर्मा से उन्होंने इस इमारत के बारे में पूछा, तब शर्मा जी ने कहा, ‘बाद में बताते हैं’। जब सारा माण्डू घूम चुके तो पण्डितजी ने फिर कहा, ‘अब तो बता दो भाई, यह इमारत क्यों बनाई गई थी’? तब गाइड शर्माजी ने बताया, ‘घोड़ों को रखने वाला तबेला थी, यह इमारत’। कहते हैं, पण्डितजी तब झेंप गए थे। दरअसल निचले तल पर यह अस्तबल था। और शेष दोनों मन्जिलों पर सुरक्षा सैनिक रहते थे। यहाँ से समूचे परिसर पर नजर रखी जाती थी।
हम आगे बढ़े। चारों ओर 60 फीट ऊँची दीवारों से सुरक्षित था यह परिसर। कहते है, उस समय इस परिसर में परिन्दा भी पर नहीं मार सकता था। हमारी बाईं ओर दीवार के उस पार मुंज तालाब था, जिसे परमार वंश के सातवें राजा वाक्पति मुंज ने बनवाया था तो दाईं ओर कपूर तालाब।
भोजपाल ने अशर्फी महल दिखाते समय हमें बताया था कि सुल्तान गयासुद्दीन को मोटी और पके बालों वाली रानियाँ नापसन्द थीं। मोटी रानियों के जिम की चर्चा हम कर चुके है। अब बारी आती है, पके बालों वाली रानियों का। तो उनके लिए था, यह कपूर तालाब। आज भी किसी भी प्रकार की डाई में कपूर अवश्य होता है। इसी कपूर तालाब में इन रानियों के बाल काले किये जाते थे। ऐसी बहुत सी कहानियाँ इस माण्डू से जुड़ी हुई हैं।
इन्हीं दो तालाबों के बीच एक पतली पट्टी पर एक जहाजनुमा महल बना हुआ है। कहते है, प्राचीन हिन्दू इमारतों की बुनियाद पर इस बुलन्द इमारत का निर्माण सुल्तान गयासुद्दीन ने कराया था। मालवा सल्तनत के इतिहास में गयासुद्दीन एक अय्याश के रूप में जाना गया है। उसने बहुत सारे संगीतकारों और गायकों को अपने राज्य में पनाह दी। साथ ही, उसका महल सुन्दर महिलाओं और कन्याओं से भरा रहता था। भोजपाल के अनुसार, उसने भगवान कृष्ण की विकृत नकल में ऐसा कार्य किया। महल की समस्त महिलाएँ सोलह कलाओं में निपुण थीं। उन्हें गायन, वादन, नृत्य, तैराकी और कुश्ती का प्रशिक्षण दिया जाता था।
उसके महल में 500 अबीसीनियाई महिलाओं का एक सशस्त्र जत्था था। वे मर्दों की वेश-भूशा में रहती थीं। उन्हें ‘हबीबस गार्ड’ कहा जाता था। इसी प्रकार, 500 तुर्की गुलाम महिलाओं का भी जत्था था, जो ‘मुगल गार्ड’ कहलाता था। एक 500 महिलाओं का तीसरा जत्था भी था जो अपनी बुद्धिमता और चातुर्य के लिए प्रसिद्ध था। इनमें प्रत्येक को एक दिन सुल्तान के साथ भोजन करने का मौका मिलता था। इस प्रकार, उसके महल में रहने वाली प्रत्येक 15000 महिलाओं को दो टंका और दो मन अनाज वेतन के रूप में मिलता था। उसके आदेश से सुन्दर महिलाओं की खोज हमेशा चलती रहती थी जिन्हें सुल्तान की हरम में भेज दिया जाता।
सुल्तान की सबसे खास और सुन्दर रानियों के लिए इस जहाज महल का निर्माण कराया गया। ऊपरी भाग पर बैठने और दोनों ओर पानी से भरे तालाब के कारण यह महल समुद्र में जहाज होने का भ्रम उत्पन्न करता है। यह माण्डू की सबसे लोकप्रिय इमारत है, जहाँ सभी पर्यटक अवश्य आते है। यहाँ हमें एक जोड़ा मिला, जो सुबह से ही ड्रेस बदल-बदलकर अनेक पोज में फोटोग्राफी करा रहा था। साथ ही, फिल्म भी बनाई जा रही थी। उसके साथ एक पूरा ग्रुप आया हुआ था। पूछने पर मालूम पड़ा कि मामला पर्सनल है और प्री-वेडिंग शॉट्स की शूटिंग चल रही है।
जहाँ माण्डू के अन्य इमारतों में जुड़ाई के लिए गारा, चूना और ईंट के पाउडर का इस्तेमाल किया गया है, वहीं इस जहाज महल में पत्थरों को लोहे की क्लैम्पिंग कर जोड़ा गया है और जहाँ जरूरत पड़ी, वहाँ जिंक और कॉपर के पेस्ट का उपयोग किया गया। यही कारण है कि वर्ष 1838 के भूकम्प में जहाँ प्रायः सभी इमारतें क्षतिग्रस्त हुईं, वहीं इसे कोई नुकसान नहीं पहुँचा। जहाज महल में प्रत्येक बड़े हॉल के साथ, एक छोटा कमरा लगा हुआ है।
इतना अय्याश होने के बावजूद सुल्तान गयासुद्दीन खिल्जी बहुत धर्मभीरू था। इस्लामी नियमों का पालन वह मृत्युपर्यन्त करता रहा। उसने कभी शराब को हाथ नहीं लगाया और न ही किसी भी वक़्त की नमाज़ छोड़ी। उसने अपनी महिला प्रहरियों को स्पष्ट आदेश दे रखा था चाहे वह कितनी भी गहरी नींद में क्यों न हो, नमाज़ के वक्त उसे बिस्तर से उठा दिया जाए।
हम आगे बढे़। वहीं भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने इस परिसर में एक संयन्त्र लगा रखा है, जहाँ लाईमस्टोन, गोन्द, रेत, ईंट के पाउडर का मसाला तैयार करने के लिए ग्राइन्डर था। कहते हैं, इस मसाले से बनाई गई इमारतों की आयु 1000 वर्ष होती है। पूरे परिसर में मरम्मत और दुरूस्ती का कार्य चल रहा था।
हम हिण्डोला महल पहुँचे। परमार स्थापत्य कला का सबसे बेहतरीन नमूना। अपने सभा मण्डप के लिए इसका निर्माण सुल्तान गयासुद्दीन ने करवाया था। हिण्डोला महल की बाहरी दीवारें 77 डिग्री के कोण तक झुकी हुई हैं। इसी ढलवाँ दीवारों के कारण यह महल झूलता हुआ दिखता है और हिण्डोला महल नाम को सार्थक करता है। बलुआ पत्थरों से निर्मित जालीदार नक्काशी और इसके प्रस्तर-स्तम्भ वाकई आकर्षक हैं। यह पूरा महल टी आकार का है।
दाईं तरफ वाले हिस्से में महिलाओं को ऊपरी मन्जिल तक पहुँचाने के लिए हौदे वाले हाथी का उपयोग किया जाता था। इस कारण यहाँ बनी खिड़कियों को ‘हाथी चढ़ाव’ भी कहते हैं। उस समय की रानियाँ ऐसी थीं जो 60 सीढि़याँ भी चढ़ नहीं पाती थीं। इनके लिए पालकी का भी उपयोग किया जाता था।
हिण्डोला महल का निर्माण बहुत प्रभावशाली है। विषाल स्तम्भ गॉथिक शैली के है, मेहराब रोमन कला की याद दिलाते हैं जबकि झुका हुआ हॉल ईजिप्ट शैली का है। ऐसी इमारतें एथेन्स में भी हैं। इसकी छत बरसात के चार माह के लिए ढंक दी जातीं जबकि शेष 8 माह खुली रहती थीं।
अब भोजपाल ने माण्डू में उपयोग की जाने वाली चौथी टेक्नोलॉजी, मौसम की भविष्यवाणी (वेदर फोरकास्ट) से परिचय कराने ले गए। इस तकनीकि का उपयोग कर मौनसून आने का सही समय मालूम कर लिया जाता था। मौनसून आगमन के ठीक 8 दिन पूर्व इसी छत से पानी टपकने लगता है। हमें छत पर पानी के नम स्थान अवश्य दिखाई पड़े। कहते हैं, पूर्व मुख्यमन्त्री श्री दिग्विजय सिंह के राघौगढ़ के महल में भी ऐसी तकनीकि है। अभी कुछ दिनों बाद मौनसून आने वाला है, सारी छत सूखी पड़ी थी, ऐसे में उस स्पॉट का गीला होना सत्य के पक्ष में सन्देह उत्पन्न कर रहा था।
इसके बाद भोजपाल हमें चम्पा बावड़ी लेकर आए। इसमें सुल्तान की खास रानियों से नीचे वाली रानियों (सेकेण्ड ग्रेड) को रखा जाता था। दरअसल यह कई मन्जिलों वाला महल था और मन्जिलें भूमि के ऊपर नहीं बल्कि नीचे की ओर हैं। उस समय के राजा अपनी रानियों की सुरक्षा को लेकर बहुत आषंकित रहते थे। जहाज महल की भाँति इस महल में भी कई तहखाने थे जहाँ भूल-भूलैया जैसी संरचनाएँ निर्मित हैं। जैसे ही खतरे की सूचना मिलती, वे इस बावड़ी में छलांग लगा देतीं और तैरते हुए नीचे बने तहखानों में सुरक्षित पहुँच जातीं। शत्रु को पता ही नहीं चलता कि वे गईं तो गईं कहाँ।
माण्डू की सबसे बड़ी विशेषता है, यहाँ की भू-गर्भीय संरचना। माण्डू का फैलाव जितना ऊपर है, उतना नीचे भी है। शत्रु के आक्रमण के समय यह संरचना सुरक्षा कवच का एक साधन भी थीं। वर्तमान में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने इन तहखानों की खुदाई शुरू कर मिट्टी हटाने का कार्य प्रारम्भ किया है। नीचे दूसरी मन्जिल तक हम भी गए जहाँ बहुत अन्धेरा था। खुदाई में अभ्रख के टुकड़े भी मिले हैं। भोजपाल ने बताया कि इस अभ्रख के कारण प्रकाश किरणें परावर्तित होकर अन्दर तक पहुँचती थीं और इसी प्रकार उजाला हुआ करता था।
चम्पा बावड़ी, इस महल का ऐसा नाम क्यों पड़ा? भोजपाल ने हमें उस बावड़ी में नीचे झांकने को कहा और बताया कि इस बावड़ी में चम्पा की बहुत सारी बेलें लगी हुई थीं जिनसे चारों ओर इस फूल की खुशबू फैली रहती थी। उसने चम्पा फूल की एक और विशेषता बताई। इसके लिए कबीर के एक दोहे का इस्तेमाल किया –
चम्पा तुझमें तीन गुण,
रूप, रंग और वास।
अवगुण तुझमें एक है कि
भंवर न आवें पास।
चम्पा के फूल में रस नहीं होता, इस कारण इन पर भौंरे नहीं आते। और इसी खूबी के कारण इस बावड़ी में चम्पा की ही लताएँ लगाई गईं।
भौंरे, चम्पा के पास क्यों नहीं जाते? भोजपाल ने इसके समर्थन में एक धार्मिक पक्ष भी रखा। चम्पा, राधा का दूसरा नाम है, जबकि भौंरा, कृष्ण का भक्त। भौंरे के लिए तो राधा माता के समान हुई। ऐसे में रसपान के भौंरा अपनी माता (चम्पा) के पास कैसे जा सकता है?
इसी स्थान पर वर्ष 1966 में रिलीज हुई फिल्म ‘दिल दिया दर्द लिया’ का गाना ‘गुजरे हैं आज इश्क में …….’ फिल्माया गया था। यह सुनते ही हमने यू-ट्यूब पर गाने का वीडियो तुरन्त देखा। सचमुच! इस गाने में रॉयल पैलेस इनक्लेव की सभी प्रमुख इमारतों को कवर किया गया है। वर्ष 1977 में आई फिल्म ‘किनारा’, डाकुओं की पृष्ठभूमि पर आधारित फिल्म ‘पुतली’, ‘वान्टेड’, ‘यमला पगला दीवाना-2’, ‘डंका’ के अधिकांश हिस्से यहीं फिल्माए गए हैं। मुकेश द्वारा गाया गीत ‘आ लौट के आजा मेरे मीत………’ की फिल्म का नाम ही “रानी रूपमती” है, जो माण्डू की विख्यात प्रेम कहानी पर आधारित है।
माण्डू पर मुगलों के कब्जे के बाद सत्ता का केन्द्र दिल्ली हो गया था और इस प्रकार माण्डू के गौरवशाली युग का अन्त हो गया। इसके बावजूद मुगल शासक इसके आकर्षण से अछूते नहीं रह सके। अकबर यहाँ चार बार आया तो शाहजहाँ दो बार आया और हुशंगशाह के मकबरे से ताजमहल बनाने की प्रेरणा ली। अकबर का पिता हुमायूँ भी यहाँ आया था। परन्तु माण्डू से सबसे अधिक प्रभावित मुगल शासक जहाँगीर रहा। उसने इसकी प्रशंसा में अनेक अविस्मरणीय विवरण लिखे हैं। उसने लिखा है, “मैं ऐसी किसी जगह को नहीं जानता, जहाँ की जलवायु और प्राकृतिक सुन्दरता वर्षा ऋतु में माण्डू से बेहतर हो”।
वह अपनी बेगम नूरजहाँ के साथ यहाँ आया था और करीब 7 महीने यहीं रूका रहा। तब नूरजहाँ के लिए एक विषेश हम्माम बनाना गया था। उस समय के राजा-रानी क्या शान से जीते थे, इसका उत्कृष्ट उदाहरण है, यहाँ का शाही हम्माम। पानी लाने के लिए नालियाँ, एक स्थान पर पानी गर्म करने के लिए चूल्हे की व्यवस्था, पानी अधिक गर्म हो जाए तो उसे ठण्डा करने के लिए नालियों की व्यवस्था, ठण्डा पानी मिलाने की व्यवस्था, नहाने के बाद कपड़े बदलने के दो ड्रेसिंग रूम। अगर वाष्प स्नान (सौना बाथ) करना हो तो दीवारों में अनेक छिद्र थे, जहाँ पानी गर्म होने के बाद भाप निकलती थी।
इनके ऐश्वर्य की चर्चा करते-करते हम वापस जहाज महल तक आए। इतना उत्कृष्ट मार्गदर्शन देने वाले भोजपाल से हमने विदा ली। दो दिन तक साथ रहने के कारण उससे आत्मीयता भी हो गई थी। चूँकि आज आसमान में बादल थे, इस कारण मौसम भी हमें और भटक लेने की इजा़जत दे रहा था। थोड़ा समय संग्रहालय को भी दिया।
रानी रूपमती और बाज बहादुर के अमरप्रेम के गवाह माण्डू का मायाजाल अकबरकालीन इतिहासकार अबुल फजल को इतना भ्रमित कर गया कि उसे लिखना पड़ा, ‘माण्डू पारस पत्थर की देन है’। उसने एक रोचक दन्तकथा का उल्लेख किया है, मण्डन नाम का सुनार था। उसने कहीं से एक पारस पत्थर प्राप्त कर लिया था और उसे उस समय के राजा को सौंप दिया। राजा ने उस पत्थर से सोना बनाकर दुर्ग का निर्माण किया। मण्डन के नाम पर इस दुर्ग का नाम ही माण्डव रख दिया गया। लॉर्ड कर्जन ने इसे “सिटी ऑफ जॉय” कहा है। विख्यात मुस्लिम इतिहासकार फरिश्ता के अनुसार, इस दुर्ग का निर्माण 590-628 ई. के मध्य आनन्ददेव राजपूत ने कराया था। माण्डू के कोने-कोने में स्थापत्य का वैभव बिखरा पड़ा है। प्राकृतिक सौन्दर्य भी इसे दिव्यता प्रदान करता है।
कहते हैं, आल्हा ऊदल की दन्तकथाओं में भी इस माण्डवगढ़ का विषिष्ट स्थान है। प्रसिद्ध कथाकार जगनिक ने आल्हा खण्ड में 52 युद्धों का जिक्र किया है। इसमें से पहली लड़ाई मांडौगढ़ में होने का जिक्र आया है। यह मांडौगढ़ सम्भवतः यही माण्डू है। शायद इसी कारण आल्हा गायकों के लिए माण्डू एक तीर्थ है। आल्हा ऊदल के क्षेत्र बुन्देलखण्ड के निवासी इस माण्डव में इन युद्धों का अवशेष देखने बड़ी श्रद्धा से आते हैं। राजा जम्बे का सिंहासन, सोनगढ़ का दुर्ग, जहाँ आल्हा के पिता और चाचा के सिर काटकर टांगे गए थे, आल्हा की सांग और वह कोल्हू, जिसमें दक्षराज-वक्षराज को करिंगा ने पीस दिया था, ये सारे तथ्य आज भी आल्हा प्रेमियों को आन्दोलित करते हैं।
कुछ देर बाद हम वापस रेस्ट हाउस आ गए। थोड़ा आराम किया। सामान समेटा और माण्डू छोड़ दिया। कभी ‘भूतों का शहर’ कहलाने वाला माण्डव आज एक लोकप्रिय पर्यटन केन्द्र है। यहाँ आने के पहले हम सोच रहे थे, जून महीने की गर्मी में यहाँ कौन आता होगा? लेकिन आने के बाद तो बहुत सारे लोग दिखे।
हमने तारापुर दरवाजा पार किया और मालवा भूमि से नीचे उतरते हुए निमाड़ घाटी में प्रवेश कर गए। धर्मपुरी और धामनोद कस्बों को पीछे छोड़ते हुए करीब सवा घण्टे में ही महेश्वर पहुँच गए। हमारे मित्र सत्येन्द्र सिंह ने 50 प्रतिशत छूट दिलाते हुए नर्मदा रिट्रीट में दो रूम वाला एक आरामदेह कॉटेज पहले ही आरक्षित करा दिया था। हमारे वहाँ पहुँचने के साथ ही, वहाँ के तहसीलदार श्री सुदीप मीणा भी हमसे मिलने आ गए। उनसे मेरी पुरानी जान-पहचान थी। मिलने के पूर्व ही उन्होंने हमारी सारी व्यवस्थाएँ चाक-चौबन्द करा दी थीं। दोपहर का लन्च लेने के बाद हमलोगों ने यहीं कुछ देर आराम किया। निमाड़ घाटी में आते ही गर्मी अचानक बढ़ गई थी।
महेश्वर में मध्यप्रदेश पर्यटन निगम का यह नर्मदा रिट्रीट बहुत शानदार लोकेशन पर बना हुआ है। नर्मदा के ठीक किनारे। हम काफी देर तट पर खड़े होकर होटल की लॉन से ही नदी को निहारते रहे। पानी से लबालब भरी यह नदी अद्भुत दिख रही थी। करीब 5:30 बजे हम अहिल्या घाट के लिए रवाना हो गए। वहाँ पर एक फिल्म यूनिट के लोग अपनी फिल्म के बारे में विचार-विमर्श कर रहे थे। पता चला, फिल्म ‘नीरजा भानोट’ की शूटिंग के लिए शबाना आजमी आई हुई हैं।
कार पार्क करने के बाद हम सबसे पहले किले में आए। वर्ष 1601 में मूल रूप से अकबर द्वारा निर्मित इस किले का आधिपत्य बाद में मराठों के कब्जे में आ गया था और सन् 1767 में रानी अहिल्याबाई ने महेश्वर को अपने होल्कर राज्य की राजधानी बनाकर इसी किले से 1795 ई. में अपनी मृत्यु तक शासन किया। महेश्वर 6 जनवरी 1818 तक होल्करों की राजधानी रही। बाद में यह इन्दौर ले जाई गई।
हमने इस किले के प्रत्येक खण्ड को ध्यान से देखा। रानी अहिल्याबाई की गादी देखी। उनकी मृत्यु के 220 वर्षों बाद आज भी रानी अहिल्याबाई महेश्वर में रहने वालों के दिलो-दिमाग पर छाई हुई है, जैसे वे महेश्वर छोड़कर गईं ही नहीं। यह किला आज भी अच्छी हालत में और पूरी तरह सुरक्षित है। इसकी अवस्थिति ऐसी है, मानो यह अहिल्या घाट पर प्रत्येक क्रियाकलाप को टकटकी लगाकर देख रहा हो। इस किले को शानदार तरीके से बनाया गया है। वहीं थोड़े अन्दर की तरफ, लकड़ी के एक दरवाजे के भीतर वह महल, जो कभी होल्कर राजाओं का निजी आवास था, अब एक फोरस्टार हेरिटेज होटल के रूप में तब्दील हो चुका है। इस होटल के मालिक प्रिन्स रिचर्ड होल्कर हैं और इस होटल का संचालन और देखरेख वही करते हैं।
नर्मदा रिट्रीट में जब सुदीप मीणा मुझसे मिलने आए थे, तब उन्होंने रिचर्ड होल्कर का नाम लिया था। मुझे नाम जरा हटकर लगा। मेरी जिज्ञासा पर उसने पूरे परिवार का विवरण प्रस्तुत किया। वे इन्दौर के अन्तिम राजा यशवन्तराव होल्कर के एकमात्र पुत्र हैं। उनकी दो रानियों में से पहली महारानी संयोगिता राजे की एक पुत्री उषा राजे हैं, जो अपने पति सतीष मल्होत्रा के साथ मुम्बई में रहती हैं। आज वह इन्दौर राज्य एकमात्र उत्तराधिकारी हैं। राजा की दूसरी रानी मार्गरेट अमेरिकन थीं, जिनसे रिचर्ड होल्कर का जन्म हुआ। वे महेश्वर आते-जाते रहते हैं। उनकी पत्नी भी अमेरिकन हैं। उनका एक पुत्र प्रिन्स यशवन्त और पुत्री सबरीना हैं। रिचर्ड को अहिन्दू माँ के पुत्र और विदेशी मूल के होने के कारण महाराजा का पद और उपाधियाँ नहीं दी गईं।
महल देखने के बाद हम सीढि़याँ उतरते हुए घाट की ओर बढ़े। उतरने के साथ ही नर्मदा नदी के अतिरिक्त अनेक मन्दिर व छतरियाँ अचानक दिख गईं। इनमें सबसे प्रभावशाली था, राजराजेश्वर मन्दिर। 4000 वर्ष पुराने इस महिष्मति नगर की स्थापना सोमवंश के क्षत्रिय राजा महिष्मान ने की थी। रामायण काल में महेश्वर को महिष्मति नाम से जाना गया है। उस समय यह नगर हैहय वंश के बलशाली शासक सहस्त्रार्जुन की राजधानी हुआ करता था, जिसने कभी लंका के महाबलि राजा रावण को बन्दी भी बनाया था। वंश की दसवीं पीढ़ी के इस सम्राट को भगवान दत्तात्रेय के वरदान से युद्धभूमि में सहस्त्र योद्धाओं का बल प्राप्त हो जाता था।
इस कहानी के अनुसार, एक बार राजा अपनी 500 रानियों के साथ क्रीड़ा एवं आनन्द के लिए राजप्रासाद से बाहर निकले थे। क्रीड़ा के लिए स्थान की कमी को देखते हुए रानियों ने राजा से बड़ा क्षेत्र उपलब्ध कराने का आग्रह किया। राजा ने अपने एक हजार शक्तिशाली बाजुओं से नर्मदा के प्रवाह को रोक दिया और इस प्रकार नर्मदा की यह भूमि रानियों के लिए उपलब्ध हो पाई। इसी बीच रिक्त भूमि देखकर रावण, जो पुष्पक विमान में आकाश मार्ग से गुजर रहा था, ने वहीं उतरकर भगवान शिव का रेत से शिवलिंग बनाया और पूजा-आराधना में ध्यानमग्न हो गया। जब रानियों का अपना उत्सव समाप्त हुआ तब राजा ने नर्मदा का प्रवाह लौटा दिया। लेकिन इस क्रम में रावण की पूजा में व्यवधान पैदा हो गया। वह भारी गुस्से में किरातवीर्य सहस्त्रबाहु अर्जुन को युद्ध के लिए ललकारने लगा। सहस्त्रबाहु अर्जुन ने बलपूर्वक उसे भूमि पर पटक दिया। उसने रावण के सिर पर 10 तथा हाथ पर एक दीप प्रज्जवलित किया और बाद में अपने घुड़साल के खम्भे से बाँध दिया। लज्जित रावण तब तक राजा का बन्दी बना रहा जब तक कि उसे मुक्त नहीं कर दिया गया।
इस महान् राजा की स्मृति में ही यह राजराजेश्वर मन्दिर अहिल्या घाट पर बना हुआ है और आज भी प्रतीकस्वरूप इस मन्दिर में 11 दीप जलाए जाते हैं। धर्मग्रन्थों के अनुसार, ऋषि जमदग्नि को प्रताडि़त करने के दण्डस्वरूप उनके पुत्र भगवान परशुराम ने इस वीर का वध कर दिया था। इस महापराक्रमी अजेय योद्धा का वध करने के लिए भगवान परशुराम को विष्णु की तपस्या करके विशिष्ट शक्तियाँ प्राप्त करनी पड़ी थीं।
सीढियों पर से ही काले पत्थरों वाली ये इमारतें बहुत प्रभावशाली नज़र आ रही थीं। वहीं प्रांगण में गिने-चुने पर्यटक और श्रद्धालु ही थे, कोई भीड़भाड़ नहीं थी। मुख्य द्वार पार करने बाद तीखी सीढि़याँ प्रारम्भ हो गई थीं। यहाँ से नर्मदा का सौन्दर्य देखते ही बन रहा था। अपने पूरे यौवन पर थी यह नदी। उछलती-कूदती, ऊँची-ऊँची लहरें, बहुत ही मनोहारी दृश्य था। कुछ देर वही ठगे से खड़े रहे। होशंगाबाद, जहाँ मैं चार साल पदस्थ रहा, इतना पानी तो कभी देखा ही नहीं। हाँ, कभी-कभी इतना पानी बारिश के दिनों में अवश्य होता था, जब नर्मदा अपने उफान पर होती परन्तु उस समय पानी मटमैला, पीले रंग का दिखता है। यहाँ का पानी एकदम साफ था।
यहाँ महेश्वर में कुल 28 घाट हैं, जिनमें यह अहिल्या घाट ही सबसे बड़ा और मान्यता प्राप्त है। यह घाट बनारस के घाटों से कम सुन्दर नहीं है। कहते है, रानी अहिल्याबाई होल्कर की समाधि को भव्य रूप देने के लिए उनकी पुत्रवधू कृष्णाबाई ने यहाँ शाही घाट और अनेक भवनों का निर्माण कराया है। अचानक मुझे याद आया और सुदीप ने भी बताया था कि अर्जुन कपूर-सोनाक्षी सिन्हा अभिनीत फिल्म ‘तेवर’ का गाना, ‘म्यूजिक बजेगा लाउड, तो राधा नाचेगी……..’ का फिल्मांकन इसी घाट पर हुआ है। चूँकि यह फिल्म हमने देखी थी, इस कारण एकदम से समझ में आ गया। वैसे यहाँ महेश्वर में तुलसी, अशोका, महाशिवरात्रि, आदिगुरू शंकराचार्य, यमला पगला दीवाना-2 सहित अनेक तमिल फिल्मों का भी फिल्मांकन हुआ है। एक फिल्म यूनिट को हम ऊपर से देखकर ही आ रहे थे।
घाट पर बहुत सारी नौकाएँ लगी थीं तो अनेक नर्मदा के जल पर तैर रही थीं। बच्चे मचलने लगे। कुछ दिन पूर्व बनारस में भी नौका यात्रा कर सारे घाटों को देखा था। एक बोट हमने तय की और बाणेश्वर होते हुए सहस्त्रधारा की ओर निकल गए। सूर्य देवता अब अस्ताचल की ओर थे। किरणें मद्धिम पड़ गई थीं। नदी में से महेश्वर के घाट और किले के दृश्यों को देखना अद्भुत था। नर्मदा में पानी अधिक था। इस कारण शाम को तेज हवा चलने के कारण बड़ी-बड़ी लहरें उठ रही थीं। हमारी बोट भी लहरों के थपेड़ों में इधर-उधर हो रही थी। हमें अहिल्या घाट से 3 कि.मी. डाउनस्ट्रीम में चलना था।
पहले बाणेश्वर आया। यह शिव मन्दिर नर्मदा नदी के बीचो-बीच एक टापू पर बना हुआ है। यह होटल नर्मदा रिट्रीट के ठीक सामने था, जिसे हमने दोपहर में भी देखा था। ऐसा विश्वास है कि उत्तरी ध्रुव से निकली हुई एक दिव्य रेखा ठीक इसी मन्दिर से गुजरती हुई पृथ्वी के केन्द्र तक पहुँचती है। यह मन्दिर नष्टप्राय हो चुका था लेकिन कुछ समय पूर्व सन् 2006 में प्रिन्स रिचर्ड होल्कर ने अपनी बेटी सबरीना के विवाह को यादगार बनाने के लिए इस मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया था। हम मन्दिर जाना चाहते थे परन्तु नाविक ने बताया कि अभी पानी कम होने से बोट का निचला हिस्सा चबूतरे से टकरा जाएगा और आगे पानी होने के कारण हम वहाँ उतर नहीं पाएंगे। दूर से ही हमने प्रणाम किया और तेजी से आगे बढ़ गए।
थोड़ी देर बाद नदी की धाराएँ तेज हो गईं और पानी का शोर भी सुनाई पड़ने लगा था। यहाँ नदी एक प्रपात का निर्माण करती है। नदी के रास्ते में पड़ने वाले काले पत्थर नदी का रास्ता रोके खड़े थे और नदी को उसे उछलते-कूदते पार करना था। इसी कारण जोरों की आवाज़ हो रही थी और पानी दूधिया हुआ जा रहा था। वहीं बोट एक तरफ लगा दी गई और हम काले पत्थरों के बीहड़ में उतर गए। ऊपर नीचे बडे-बड़े पत्थरों पर कूदते-फाँदते हम सहस्त्रधारा के किनारे पहुँचे। यहाँ पानी की प्रचण्डता का एहसास हमें बड़ी कोमलता से हुआ। नदी की पूरी चौड़ाई ब्लैक ऐण्ड वाईट थी। काले पत्थर और उससे लिपटते पानी के दूधिया झाग। वहीं पानी में पैर लटकाए हम कुछ देर बैठे रहे। सम्भवतः इस स्थान पर हज़ारों पत्थरों की मौजूदगी के कारण ही हज़ार बाहुओं वाले, सहस्त्रबाहु की कल्पना कवियों और साहित्यकारों ने की हो, जिसने नर्मदा का प्रवाह रोक दिया था।
सूर्य ढलने लगा था। यहाँ आने वाले मात्र हम ही थे, शायद अन्तिम। लौटते-लौटते अन्धेरा होने लगा था और 3 कि.मी. दूरी तय कर अहिल्या घाट तक पहुँचते-पहुँचते तो घाट पर हैलोजन बल्ब भी जल चुके थे।
कहते हैं, इस महिष्मती नगर का नाम महाभारत काल में भी सुना गया है। यहाँ की एक कथा राजा नील के साथ जुड़ी हुई है। राजा की पुत्री बहुत सुन्दर थी। वह राजा के साथ प्रतिदिन यज्ञ पर बैठती। यज्ञ की अग्नि राजा की तमाम कोशिशों के बावजूद तब तक प्रज्वलित नहीं होती, जब तक राजकुमारी अपने होठों से फूंक नहीं मार देती। इसी क्रम में अग्निदेव को राजकुमारी से प्यार हो जाता है। अग्निदेव एक ब्राहम्ण के वेश में राजा के आसपास रहने लगते हैं। लेकिन राजा नील के समक्ष एक दिन उन दोनों के प्रेम का रहस्य खुल जाता है। राजा बहुत गुस्सा होते हैं और आदेश देते हैं कि अग्निदेव को इसका दण्ड भुगतना होगा। उन्हें मेरे दरबार में उपस्थित किया जाए। अग्निदेव अपने प्रचण्ड रूप में आ जाते हैं और राजा को चुनौती देते हैं कि अगर ऐसा हुआ तो वह राजा नील के सारे राज्य को जला कर राख कर देंगे। राजा डर जाते हैं और भूमि पर अपना सिर झुका कर बैठ जाते हैं। इसी कारण इस नगर की कन्याएँ पत्नी के रूप में बाहर के निवासियों को स्वीकार्य नहीं हैं, ऐसी प्राचीन मान्यता रही है। इसी मान्यता के कारण अग्निदेव ने यहाँ की महिलाओं को वरदान दिया कि वे अपनी इच्छा अनुसार किसी के साथ सम्बन्ध बनाने के लिए स्वतन्त्र है। राजा नील महाभारत युद्ध में कौरवों के पक्ष से लड़ते हुए परम गति को प्राप्त हुए थे।
हम पुनः अहिल्या घाट पर आ चुके थे। वहीं एक मन्दिर के सामने एक पुजारी कुछ भक्तों के साथ नर्मदा आरती कर रहे थे। हम कुछ देर वहीं घाट पर बैठे रहे। कहते है, आठवीं सदी में आदिगुरू शंकराचारर्य और मण्डन मिश्र के बीच वह प्रसिद्ध शास्त्रार्थ यहीं कहीं हुआ था। सातवीं सदी के प्रसिद्ध वेद मीमांसक पण्डित मण्डन मिश्र की कर्मभूमि महेश्वर ही रही है। उस प्रसिद्ध शास्त्रार्थ की निर्णायिका उनकी विदुषी पत्नी भारती देवी थीं। वह महान् सूर्योपासिका थीं और उन दोनों विद्वानों के गले में फूलों का हार डाल कर यह कहा था कि हारने वाले विद्वान के गले की पुष्पमाला कुम्हला जाएगी। 20 दिवस के बाद मण्डन मिश्र पराजित हो गए थे। तत्पश्चात् भारती देवी ने जगद्गुरू से शास्त्रार्थ किया था। “शंकर दिग्विजय” में इस शास्त्रार्थ का विवरण अत्यन्त रोचक तरीके से दिया गया है। कृपालु महाराज की यह कर्म भूमि रही है। इसी घाट पर वे संकीर्तन कराते रहे हैं। राज्य शासन ने भी महेष्वर को पवित्र नगर का दर्जा दिया हुआ है।
परन्तु महेश्वर में होशंगाबाद के मुकाबले रौनक बहुत कम थी। प्रकाश व्यवस्था नहीं के बराबर है। लोगों की आवाजाही भी अधिक नहीं थी। मन्दिरों में श्रद्धालु कम थे। कुछ देर घाट पर बैठने के बाद नर्मदा दर्शन के अलावा वहाँ कुछ ऐसा नहीं था, जिसका आनन्द लिया जा सके। जहाँ होशंगाबाद के सेठानी घाट पर सभी इमारतें सफेद रंग से पुती होने के कारण जागृत दिखती है, वहीं यहाँ काले पत्थरों वाले भवन वह गरिमा प्रदान नहीं कर पा रहे थे। नर्मदा आरती में भी ओजस्विता की भारी कमी थी। परन्तु यहाँ की नर्मदा का सौन्दर्य दर्शन होशंगाबाद से एमदम अलग, अद्भुत है।
कहते हैं, जब रानी अहिल्याबाई न्याय करने के लिए अपनी गादी पर बैठती थीं, तो परिन्दे भी आसमान में उड़ना बन्द कर देते थे। ऐसी छवि थी रानी की। अगर महेश्वर के इतिहास से रानी अहिल्याबाई के विषय को अलग कर दिया जाए, तो इस नगर के अंश में नर्मदा को छोड़कर कुछ बचेगा ही नहीं।
अहिल्या तब आठ वर्ष की थीं, जब मराठा सेनापति मल्हारराव होल्कर पूना वापस लौटते समय उनके गाँव चोण्डी में रूके थे। अहिल्या जिस प्रकार गाँव के मन्दिर में सेवादान कर रही थीं, वे काफी प्रभावित हुए और अपने बेटे खाण्डेराव की बहू बनाने के लिए उसे अपने महल में ले आए। उनका लालन-पालन राजसी तरीके से हुआ। बाद में बाल्यावस्था में ही उनका विवाह भी हो गया। 29 वर्ष की आयु में उनके पति की मृत्यु हो गई। वे पति की चिता पर सती होने के तत्पर थीं परन्तु अपने ससुर मल्हारराव होल्कर के बहुत अनुनय विनय के बाद उन्होंने सती होने का विचार त्याग दिया। उनका प्रशिक्षण सैन्य कार्यों के साथ-साथ प्रशासनिक दक्षता के लिए भी कराया गया था।
अहिल्याबाई किसी बड़े भारी राज्य की रानी नहीं थीं। उनका कार्यक्षेत्र भी सीमित था परन्तु वह जो कुछ कर पाईं, उससे आश्चर्य होता है। उन्होंने अपने राज्य की सीमाओं से बाहर जाकर भारत भर के प्रसिद्ध तीर्थों और स्थानों पर मन्दिर बनवाए, घाट बनवाए, कुएँ खुदवाए, बावडि़याँ बनवाईं, मार्ग बनवाए। उन्होंने काशी विश्वनाथ के दोनों गुम्बद बनवाए, एलोरा के घुश्मेश्वर, वैद्यनाथ के ज्योतिर्लिंग मन्दिरों का निर्माण कराया, सोमनाथ के प्राचीन मन्दिर का जीर्णोद्धार कराया। प्यासों के लिए प्याऊ बनवाए। मन्दिरों में विद्वानों की नियुक्ति कर शास्त्रों पर मनन-चिन्तन की प्रथा पुनः प्रारम्भ कराई। अपने जीवन काल में ही जनता उन्हें ‘देवी’ मानने लगी थी। अहिल्याबाई ने परोपकार के जिन कार्यों को पूरा कराया, उसका पूरा विवरण उनके महल में अंकित है। महेश्वर की जनता उन्हें ‘माँ साहेब’ कहकर सम्मान देती है। इतना बड़ा व्यक्तित्व जनता ने अपनी आँखों से देखा ही कहाँ था?
उनके श्वसुर मल्हारराव होल्कर की मृत्यु के बाद जब पड़ोसी राज्यों ने उन पर आँखें दिखाईं, तब वे सैन्य अभियान के लिए तैयार हुईं। उन्होंने बहुत सारी पगडि़याँ तैयार करवाईं और प्रत्येक मराठा सरदारों को इस अनुरोध के साथ भिजवाया कि वे सभी अपनी ‘बहन’ की मदद के लिए आगे आएँ। कहते हैं, तब सारी कायनात ने उनकी मदद की थी। युद्ध विजय के बाद इन मराठा सरदारों की पत्नियाँ रानी अहिल्याबाई से मिलीं और उनसे कहा, “आपने हमारे पतियों को तो पगडि़याँ भिजवाईं, हमारे लिए क्या भिजवाएँगी”? तब रानी ने सूरत के दक्ष बुनकरों को महेश्वर बुलवाया और उन रानियों के लिए बेहतरीन साडि़याँ तैयार करवाईं। कहते हैं, महेश्वर में साड़ी उद्योग की शुरूआत इसी घटना से होती है।
भारत में साडियों का प्रचलन कितना पुराना है, यह तो नहीं कहा जा सकता परन्तु समय-चक्र के अनेक चरणों से गुजरने के बाद भी यह आज तक ज्यों का त्यों बना हुआ है। सदियाँ बीत गईं पर साड़ी भारतीय महिलाओं की प्रमुख परिधान थी, है और बनी रहेगी। इतिहास के लम्बे कालखण्ड तक साड़ी दो टुकड़ों में उपयोग की जाती रही परन्तु कालान्तर में दोनों हिस्से मिलकर एक हो गए और लम्बाई कुछ बढ़ गई। साड़ी भारतीय समाज की संस्कृतिक पहचान है। जब साड़ी का ऊपरी हिस्सा चेहरे और सिर ढंकने की परम्परा से जुड़ता है तो घूंघट है, अपने बालक के लिए आश्रय के काम आता है तो आँचल है और जब किसी वस्तु को प्राप्त करना हो तो पल्लू बन जाता है।
महेश्वर में इस उद्योग को प्रश्रय देने का श्रेय अहिल्याबाई को है। शिवभक्त रानी ने नर्मदा तट पर तांत वस्त्रों की बुनाई प्रारम्भ कराई तो शिव के नाम पर ही महेष्वरी नाम दिया गया। उन्होंने हैदराबाद, सूरत एवं अन्य क्षेत्रों से हथकरघा के कुशल कारीगरों को बुलाकर यहाँ बसाया। इसके पूर्व यहाँ मात्र सूती वस्त्रों का ही उत्पादन होता था। इन कारीगरों के आने के बाद इन्हें संरक्षण प्रदान किया गया और शाही माँग के मुताबिक सूती साड़ी, साफे, पगड़ी, अंग-वस्त्र आदि का उत्पादन आरम्भ हुआ। इस प्रकार के वस्त्र तैयार करवा रानी स्वयं खरीद लेती और भेंट के तौर पर मेहमानों, रिश्तेदारों और परिचितों को दे दिया जाता।
धीरे-धीरे इस उद्योग को गति मिली और ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। पुराने समय में राजपरिवार की महिलाएँ केसर से निकाले गए रंग से अपनी साडियों के धागे रंगवाती थीं, जिन्हें पहनने के बाद केसर की भीनी-भीनी खुशबू आती रहती। इन साडि़यों की सबसे बड़ी खासियत इनकी चेकनुमा बनावट है, जिसे यहाँ की बोली में ‘चौखड़ा’ कहा जाता है। घाटों एवं मन्दिरों पर बनी हुई आकृतियों की डिजाइन बनाकर साड़ी के बॉर्डर एवं पल्लू पर उतारा गया, जो आज भी प्रचलन में है और यही महेष्वरी साडि़यों की पहचान है। यहाँ शुरू में पाँच गज की साड़ी बनती थी, जिसे दांडिया कहा जाता था। जबकि लड़कियों के विवाह के अवसर हल्दी-कुमकुम की रस्म के समय दुल्हन को नौ गज की महाराष्ट्रियन साड़ी जरूर पहनाई जाती है। रंगीन वस्त्रों के लिए प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल होता रहा।
अहिल्याबाई के पश्चात् भी होल्कर शासकों ने इस उद्योग को संरक्षण देना जारी रखा। सन् 1921 में तत्कालीन राजा श्रीमन्त तुकोजीराव होल्कर द्वारा महेश्वर में वीविंग ऐण्ड डाईंग डिमॉन्स्ट्रेशन फैक्ट्री की स्थापना की गई। इसका उद्देश्य इन बुनकरों को तकनीकि सहयोग देना था। यह संस्थान आज शासकीय हथकरघा प्रशिक्षण केन्द्र के नाम से जाना जाता है।
आरम्भ में महेश्वरी वस्त्रों में बूटा-बूटी का चलन नहीं था परन्तु सन् 1962 के बाद छोटी बूटा-बूटी का प्रयोग शुरू हुआ, जिसका आकार समय के साथ-साथ बढ़ता चला गया। आज बड़े बूटे के अतिरिक्त जाल पल्ला का उपयोग भी धड़ल्ले से हो रहा है। इस उद्योग की शुरूआत तो सूती साड़ी से ही हुई थी परन्तु सन् 1947 के लगभग इन हथकरघों पर ताने के रूप में सिल्क का उपयोग होने लगा। पहले यह सिल्क जापान से आयातित होता था, इस कारण इसे जापानी सिल्क के नाम से जाना गया। धीरे-धीरे जापानी सिल्क का स्थान मलबरी सिल्क ने ले लिया। यहाँ के बुनकर सूती धागे में रेशमी धागे मिलाकर जो साडि़याँ बनाते हैं, उन्हें नीम रेशमी साडियाँ कहते हैं, क्योंकि ये सारे करघे नीम वृ़क्षों के नीचे उपयोग में लाए जाते रहे। 1999 के बाद तो 100 प्रतिशत रेशमी साडि़यों का उत्पादन होने लगा है।
महेश्वरी साडि़यों की समृद्ध परम्परा को बनाए रखने में प्रिन्स रिचर्ड होल्कर ने भी योगदान दिया। उन्होंने रेवा सोसायटी नाम का एक ट्रस्ट बनाकर अपने संरक्षण में इस विधा को और समृद्ध बनाया है।
आज इस ट्रस्ट में काम करने वाले देवी अहिल्या द्वारा आमन्त्रित बुनकरों के ही वंशज हैं। हम तो वहाँ जा नहीं पाए क्योंकि हमें घाट पर ही अन्धेरा हो गया था परन्तु हमें पता था कि इस वर्कषॉप के अन्दर पर्यटकों के आने-जाने की मनाही है। वे तो केवल खिड़कियों की जाली से झांक भर सकते हैं। इतना सुनते ही जिज्ञासा कई गुना बढ़ गई थी। कविता समेत बच्चे भी कहने लगे उन्हें तो देखना है कि ये महेश्वरी साडि़याँ बनती कैसे हैं?
इसी उधेड़बुन में मुझे अचानक याद आया कि होशंगाबाद के रेशम केन्द्र में रेशम के धागे कैसे बनते है, समझने के दौरान मुझे बताया गया था कि चूँकि होशंगाबाद में साडियाँ नहीं बनतीं, इस कारण ये धागे तैयार कर महेश्वर भेजे जाते है। तत्कालीन जिला रेशम अधिकारी श्री राकेश श्रीवास्तव मेरे पुराने परिचितों में होने के साथ-साथ आदरणीय भी है। मैंने उनसे अनुरोध किया। उन्होंने मुझसे 10 मिनट का समय लिया। फिर फोन करके बताया कि कल सुबह 9 बजे तैयार रहना, मैंने कुछ लोगों को बोला है, वे आपको वह सब दिखा देंगे, जो आप देखना चाहते हैं।
लौटते समय नगर का एक चक्कर लगाया। छोटा सा महेश्वर एक शान्त परन्तु मित्रवत शहर है। वापस होटल लौटे। नर्मदा के तीर पर काफी देर टहलते रहे। थोड़ा बहुत खाया। दिन भर की बातें कीं। फिर बच्चे अपने कमरे में और हम अपने कमरे में।
इस यात्राखण्ड का आज दूसरा दिन था।
तीसरा दिन: महेश्वर से ओंकारेश्वर तक
सुबह हम तैयार होकर, नाश्ते के बाद अपने कमरों में लौटे ही थे कि वर्माजी हमें बुनकरों के पास ले चलने के लिए आ चुके थे। हम सीधे मोमिनपुरा पहुँचे। यह पूरा क्षेत्र मुस्लिम बस्ती है। सामने ही मद्रासी बाबा की दरगाह थी। वर्माजी ने हमें असमत अन्सारी से मिलवाया। उन्होंने बताया कि इन गलियों में करीब दो हजार करघे हैं और असमत भाई इन बुनकरों के संघ के अध्यक्ष है। मिलकर वास्तव में खुशी हुई।
असमत अन्सारी ने हमें महेश्वरी साड़ी तैयार करने की बारीक से बारीक जानकारी दी। करघों पर कैसे नाल फेरा जाता है? कैसे ताने चढ़ाए जाते हैं? उन पर बानों की बनावट किस प्रकार होती है? एक साड़ी तैयार करने में कितना समय लगता है? किनारे कैसे बनाए जाते हैं? इनको डाई कैसे किया जाता है? पहली बार मालूम पड़ा कि ताना और बाना नाम की कोई चीज भी होती है। यहाँ एक भी पावरलूम नहीं है, सिर्फ हैण्डलूम हैं। कितने ही करघों पर साडि़यों की बुनाई के लिए ताने और बाने चढ़े दिखे।
अन्त में कुछ साडियाँ दिखाने वे हमें अपने घर ले गए। हिन्दुस्तानी तहजीब के मुताबिक उन्होंने हमारा सत्कार किया और बहुत तरह के कपड़े दिखाए। जानकर आष्चर्य हुआ कि फैब इण्डिया और रेवा जैसे बड़े ब्राण्ड के सप्लायर यही लोग हैं। इन ब्राण्डों के स्टीकर लगे कपड़ों का आर्डर तैयार था। कुछ कपड़े हमने खरीदे भी, जो बाज़ार के मुकाबले बहुत सस्ती दरों पर मिले। उनका शुक्रिया अदाकर हम वापस लौटे। होटल से चेकआउट किया और ओंकारेश्व की ओर बढ़ गए।
इस यात्राखण्ड का आज तीसरा और अन्तिम दिन था। हमने ओंकारेश्वर में पूजा विधान के लिए आज का शेष समय आरक्षित कर रखा था। मण्डलेश्वर और बड़वाह होते हुए 60 कि.मी. की दूरी तय कर डेढ़ घण्टे में हम ओंकारेश्व स्थित एन.वी.डी.ए. के विश्राम गृह में थे। थोड़ी देर हाथ-पैर सीधे किए। वहाँ के तहसीलदार श्री मुकेश काशिव से अनुरोध किया। भारी व्यस्तता के बावजूद उसने मन्दिर प्रबन्धन के एक कर्मचारी को तुरन्त हमारे पास भेजा।
ओंकारेश्वर, भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है, जो नर्मदा नदी के मध्य में मान्धाता द्वीप पर है। इस द्वीप को ठीक ऊपर हेल्किॉप्टर से देखें तो यह ऊँ के आकार में दिखेगा। भगवान शिव के महान् भक्त अम्बरीष और मुचकुन्द के पिता सूर्यवंशी राजा मान्धाता ने इस स्थान पर कठोर तपस्या कर शिव को प्रसन्न किया और शिवजी के प्रकट होने पर उनसे यहीं रहने का वरदान माँग लिया था। तभी से यह प्रसिद्ध तीर्थनगरी ओंकार-मान्धाता के नाम से पुकारी जाने लगी।
कुछ ही देर में हमें मन्दिर दर्शन कराने वाला व्यक्ति रेस्ट हाऊस आ गया था। गाड़ी पार्किंग में लगवाने के बाद वह हमारे लिए गाइड की भूमिका में था। उसने बहुत रोचक जानकारियाँ दीं। कहते हैं, वाराह कल्प में जब सारी पृथ्वी जलमग्न हो गई थी, तब उस वक्त भी मार्कण्डेय ऋषि का आश्रम जल से अछूता रहा था। यह आश्रम इसी नर्मदा तट पर ओंकारेश्वर में था। शास्त्रों की मान्यता है कि कोई भी तीर्थयात्री भले ही देश के सारे तीर्थ कर ले किन्तु जब तक वह ओंकारेश्वर आकर किए गए तीर्थों का जल नहीं चढ़ाता, उसके समस्त तीर्थों का फल अधूरा है।
रास्ते में उसने विन्ध्याचल पर्वत से जुड़े एक प्रसंग को बड़े रोचक ढंग से सुनाया। एक बार नारद मुनि ओंकारेश्वर पधारे और उनकी चर्चा विन्ध्य पर्वत से होने लगी। विन्ध्य पर्वत स्वयं ही अपनी महिमा का बखान करने लगे कि उनके लिए कुछ भी असम्भव नहीं है। नारद मुनि को विन्ध्य पर्वत की बातों में अहंकार की बू आने लगी थी। नारद मुनि ने उन्हें ताना मारते हुए बोला, ठीक है! मान लिया, तुम्हारे पास सबकुछ है लेकिन मेरू पर्वत तो सोचता है कि वह समस्त पर्वतों में महान् है। उसके शिखर पर समस्त देवता निवास करते हैं और सूर्यदेव भी प्रतिदिन उसके शिखर की परिक्रमा करते हैं।
विन्ध्य पर्वत को यह बात चुभ गई। उसने अपनी महानता प्रदर्शित करने की ठान ली। भगवान शिव की उसने छः माह तक कठोर तपस्या की। वह प्रतिदिन पार्थिव शिवलिंग की पूजा करता। भगवान शिव प्रसन्न हुए और दर्शन देकर वरदान माँगने को कहा। उसने भगवान से अपनी समस्त इच्छाओं को पूरा करने के लिए सामर्थ्य और बुद्धि माँगी। भगवान आशुतोष ने कहा, तथास्तु! परन्तु याद रहे, तुम्हारे कर्मों से किसी को कष्ट न पहुँचे।
भगवान से वरदान पाकर विन्ध्य पर्वत और अहंकारी हो गया। उसने अपनी ऊँचाई बढ़ानी शुरू की और मेरू पर्वत से भी ऊँचा हो गया। सूर्य का परिक्रमा-पथ अवरूद्ध हो गया। पृथ्वी के दक्षिण का भाग अन्धेरे में डूब गया। वहीं उत्तरी भाग सूर्य के ताप में झुलसने लगा। सारे विश्व में हाहाकार मच गया था। समस्त देवता भागे-भागे भगवान विष्णु की शरण में पहुँचे। भगवान विष्णु ने कहा, विन्ध्य को शिव का आर्शीवाद प्राप्त है, उसे कोई नहीं रोक सकता। आप लोग अगस्त्य मुनि के पास जाएँ, वही कोई उपाय सुझाएंगे।
उस समय अगस्त्य मुनि अपनी पत्नी लोपामुद्रा के साथ काशी में प्रवास करते थे। देवताओं के आग्रह पर वह दुखी मन से ही लेकिन तैयार हुए और अपने पूज्य शिवलिंग और पत्नी के साथ विन्ध्य से मिलने रवाना हो गए। अपने गुरू अगस्त्य को आया देख विन्ध्य ने वापस नीचे सिकुड़कर उन्हें प्रणाम किया और उनके आने का प्रयोजन पूछा। मुनि ने विन्ध्य से कहा, मुझे दक्षिणी दिशा में जाना है, मुझे रास्ता दो और जब तक मैं वापस न लौटूँ, तुम ऐसे ही बने रहना। विन्ध्य ने लघु रूप धारण कर उन्हें सम्मानपूर्वक रास्ता दिया। मुनि फिर वापस कभी नहीं लौटे। वे श्रीशैलम् में भगवान शिव की स्थापना कर वहीं रह गए।
यही कहानी सुनते-सुनते हम मन्दिर प्रांगण में आ गए थे। हाथ-पैर धुलवाकर उस व्यक्ति ने एक अलग रास्ते से हमें शिवलिंग तक पहुँचाया। उसने बताया कि ओंकारेश्वर शिवलिंग किसी मनुष्य द्वारा गढ़ा, तराशा या निर्मित नहीं है बल्कि एक प्राकृतिक शिवलिंग है। प्रायः किसी भी मन्दिर में लिंग की स्थापना गर्भगृह के मध्य में की जाती है, जिसके ऊपर शिखर होता है किन्तु यह शिवलिंग गुम्बद के नीचे नहीं है। यह भी मालूम बड़ा कि मन्दिर के ऊपरी शिखर पर भगवान महाकालेश्वर का शिवलिंग भी प्रतिष्ठित है, जैसे महाकालेश्वर मन्दिर की ऊपर वाली मन्जिल पर ओंकारेश्वर शिवलिंग है। पूजा करते समय हमने देखा कि इस शिवलिंग की जलहरी गोल न होकर चौकोर है। उस व्यक्ति ने इसे यहाँ की विशिष्टता बताई।
शिवलिंग पर जल चढ़ाकर हम एक मन्जिल नीचे आए और पूर्ण विधि-विधान से अभिषेक किया। इसके बाद कुछ देर वहीं इधर-उधर घूमते रहे। कुछ फोटोग्राफी भी की। पहले मैं यहाँ दो बार आ चुका हूँ। अब एक नया पुल बन चुका है। पीछे बने ओंकारेश्वर डैम को मैंने पहली बार देखा। नदी में पानी पहले के मुकाबले अब काफी कम हो गया है। मुझे याद है, मैं अपने बड़े भाई के साथ इस द्वीप की पैदल परिक्रमा की थी। साथ ही, हमने नाव से भी द्वीप का चक्कर लगाया था। उस दिन हम लोगों के पास पर्याप्त समय था और नदी में भरपूर पानी भी। परन्तु अब सम्भव नहीं है। शाम के समय ओंकारेश्वर डैम से जब पानी छोड़ा जाता है, तब इस तरफ नदी भरी होती है अन्यथा अधिकांशतः द्वीप के पिछले भाग वाली धारा, कावेरी में ही पानी जाता है।
कहते हैं, इस मन्दिर में कभी शिव भक्त कुबेर ने तपस्या की थी। भगवान शिव ने प्रसन्न होकर कुबेर के स्नान के लिए अपनी जटा के बाल से कावेरी नदी उत्पन्न की थी। यह धारा कुबेर मन्दिर के बाजू से निकल कर द्वीप का चक्कर लगाते हुए नर्मदा से जा मिलती है, इसे ही नर्मदा-कावेरी का संगम कहते हैं। वास्तव में, ओंकारेश्वर पर्वत के द्वीप बन जाने के कारण यहाँ नर्मदा की दो धाराएँ हैं।
हमने ममलेश्वर मन्दिर की ओर जाने के लिए पुल पार किया। नदी की दूसरी ओर बना यह मन्दिर विशाल नहीं है परन्तु इसकी धार्मिक मान्यता कम नहीं है। इन दोनों शिवलिंगों को एक ही ज्योतिर्लिंग के रूप में मान्य किया गया है। देवताओं और ऋषियों ने शिव से प्रार्थना की थी कि वे विन्ध्य क्षेत्र में स्थिर होकर निवास करें। तब शिव ने उनकी बात मान ली थी। उसी समय वहाँ स्थित ओंकारलिंग दो स्वरूपों में विभक्त हो गया था, एक ओंकारेश्वर और दूसरा, ममलेश्वर अर्थात् अमरेश्वर। यह मन्दिर 10वीं सदी का बना हुआ है। महेश्वर में अहिल्याबाई की गादी के पास उनकी मदद से बने मन्दिरों की सूची में ममलेश्वर मन्दिर का नाम भी दर्ज है। हमने यहाँ भी अभिषेक किया और दान-दक्षिणा उपरान्त हमारे गाइड को धन्यवाद देते हुए वापस नर्मदा रिट्रीट लौटे।
म.प्र. पर्यटन विकास निगम का यह होटल, रेस्ट हाऊस के बगल में ही था। हमने यहाँ दोपहर का लन्च किया। होटल काफी ऊँचाई पर और नर्मदा के ठीक किनारे बना हुआ है। यहाँ से इस पूरे क्षेत्र का विहंगम दृश्य हमें अभिभूत कर गया। एकदम शान्त पानी, मन्दिर का दिव्य शिखर, मान्धाता पहाड़, आसपास घने जंगल, दूर ओंकारेश्वर डैम, समूचा पैकेज मनमोहक था। फोटोग्राफी भी खूब की।
अब बच्चों को ओंकारेश्वर डैम और जहाँ बिजली बनाई जाती है, पावर हाउस देखने की इच्छा हो गई। मुकेश काशिव आज अधिक व्यस्त थे। मैंने इसी विभाग में पदस्थ अपने वरिष्ठ श्री प्रदीप जैन से मदद माँगी। उनकी त्वरित मदद ने हमारा काम बहुत आसान कर दिया। हम लन्च के बाद सीधे डैम के लिए निकल गए। सी.आई.एस.एफ. वालों को हमने अपना परिचय दिया। उन्होंने हमें सीधे पावर हाउस की ओर भेज दिया। डैम में अभी भी भरपूर पानी था। हम लिफ्ट से 300 फीट पानी के नीचे पहुँचे। अन्दर बहुत शानदार तरीके से पूरा पावर हाउस व्यवस्थित था।
हमारी मुलाकात शिफ्ट प्रभारी श्री अखिलेश पाटीदार से कराई गई। उन्होंने कन्ट्रोल रूम से शुरूआत की। पूरा सिस्टम कम्प्यूटराइज्ड था। कितना पानी छोड़ना है? कितनी बिजली बनेगी? तैयार बिजली कहाँ भेजी जाएगी? किसी भी प्रकार की अव्यवस्था या चूक तुरन्त कम्प्यूटर पर दिखेगी। उनके अनुसार, इस डैम की आधारशिला तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्री अटल बिहारी वाजपेई ने 30.08.2003 को रखी थी और इसे पूरा करने के लिए पाँच वर्ष की समय सीमा दी गई। लेकिन समय सीमा से काफी पहले नवम्बर 2007 में ही इस संयन्त्र ने विद्युत उत्पादन प्रारम्भ कर दिया था। इस परियोजना में 65 मेगावाट की 8 यूनिट्स हैं और कुल उत्पादन क्षमता 520 मेगावाट है। हमने इसके मैकेनिज्म को समझने की कोशिश की। ढाई सौ टन भारी रोटर, 12 टन भारी शैफ्ट और 64 टन भारी टरबाईन को देखा। टरबाईन चलने के बाद कैसे बिजली बनती है, हम सबने देखा और समझा। हम नीचे तक पहुँचे। मगर उस समय टरबाईन बन्द थे।
यह जानकर बहुत आश्चर्य हुआ कि उस समय विद्युत उत्पादन बन्द था क्योंकि बिजली की आवश्यकता नहीं है। बिजली की किल्लत वाले देश को जून महीने में, दोपहर 3:00 बजे की गर्मी में भी बिजली की आवश्यकता नहीं है, समझ में नहीं आया। दूसरी ओर यह भी मालूम पड़ा कि पिछले साल के मुकाबले पानी भी 1 मीटर से अधिक बचा हुआ है। इस परियोजना से 529 गाँवों को सिंचाई के लिए जल की आपूर्ति भी की जा रही है। श्री पाटीदार को धन्यवाद देकर हम वहाँ से निकले।
शाम के 4:30 बजे थे। हमारी यात्रा पूरी हो चुकी थी। इन्दौर और देवास नगरों के बाहर से निकलते हुए हम वापस लौटे। शाम के 8:30 बजे डोडी में कुछ खाया पिया और रात्रि 10:00 बजे तक हम घर में थे।
कहते हैं, स्मृतियाँ ही रचनात्मकता को जन्म देती हैं परन्तु स्मृतियाँ सुखद होनी चाहिए। इस लेखनी के माध्यम से मैं उन समस्त अपनों का आभार व्यक्त चाहता हूँ जिन्होंने मेरे इस यात्राखण्ड को सुखद बनाया। सर्वप्रथम मैं अपने वरिष्ठ श्री दीपक सक्सेना का हृदय से आभारी हूँ जिन्होंने उसी क्षण मेरा अवकाश स्वीकृत किया। अपने अग्रज बिहारी सिंह का, जिन्होंने इस यात्राखण्ड को आकार दिया। अपने वरिष्ठ श्री प्रदीप जैन का, जिन्होंने ओंकारेश्वर डैम देखने की राह आसान की। अपने मित्र सत्येन्द्र प्रसाद सिंह का, जिन्होंने मेरे लिए महेश्वर में कक्ष आरक्षित कराए और वह भी घटी दरों पर। अपने मित्र राजेन्द्र ठाकुर का, जिन्होंने मुझे वाहन उपलब्ध कराया। अपने मित्र वरूण अवस्थी और महेन्द्र जोशी का, जिन्होंने क्रमशः महेश्वर और ओंकारेश्वर में देखने योग्य स्थानों के बारे में बहुमूल्य सुझाव दिए। अपने अनुजों सुदीप मीणा और मुकेश काशिव का, जिन्होंने मुझे लोकल सपोर्ट दिया। माण्डू के गाइड भोजपाल, पटवारी मेहताब और ओंकारेश्वर में गाइड की भूमिका निभाने वाले उस शख्स, जिनका नाम गलती से मैं पूछ नहीं पाया, को भी धन्यवाद देना चाहूँगा। साड़ी निर्माण विधि समझने में मदद करने वाले वर्माजी, असमत अन्सारी और पावर हाउस के प्रभारी श्री पाटीदार के प्रति भी कृतज्ञता ज्ञापित करना चाहूँगा। इस अवसर पर अपने सम्माननीय राकेश श्रीवास्तव को भी याद करना चाहूँगा जिनकी मदद के बिना मैं अपनी पत्नी को महेश्वरी साडि़याँ कैसे बनती हैं, नहीं दिखा पाता। आलेख को तैयार करने में अपने कम्प्यूटर ऑपरेटर फरज़ान खाँ और प्रोग्रामर, अभिषेक तिवारी को हृदय से आभार व्यक्त करना चाहूँगा। अन्त में, उस परमात्मा को, जिनके कारण मेरा अस्तित्व है।